-रामस्वरूप दीक्षित-

शादी का छोटा सा घर भी
एकायक हो जाता है बड़ा
उसकी निकल आती हैं
बड़ी बड़ी बाहें
जिन्हें पसारकर
वह करता रहता है दिनरात
आने वालों की अगवानी
प्रेम से लगाता है सबको गले
ले जाता है आदर और स्नेह के साथ भीतर
आने वाला भीतर आते ही
हो जाता है पाहुना
घर के नेह में भीगे
प्रेम की खुशबू से सराबोर
और
अपनेपन की भीनी गन्ध से सुवासित् पाहुने
इधर उधर डेरा डाले
बोलते बतियाते
पिछली बार की यादों में गोते लगाते
चुहलबाजी करते
घर को बदल डालते “उत्सव धाम ” में
कभी चुपचाप सा , कभी अनमना
कभी उदासी की चादर में लिपटा घर
गूंज उठता है
नन्हीं किलकारियों
स्त्री स्वरों के मधुर कलरव
और उन्मुक्त पुरुष ठहाकों से
पुराने गिले शिकवे
पिछली कड़वाहटें
बहने लगती हैं
खुशी की लहराती नदी में
मंगलगानों और प्रेमपगी रससिक्त गारियों की स्वरलहरी में
डूबकर गोते लगाते पई पाहुनों को देख
दीवारों से भी रिसने लगती है
आह्लाद की महीन धारें
मौसम की बेतहासा गरमी को
स्वागत सत्कार की फुहारें
कर देती हैं शीतल
घर कभी कभार भीतर आता है
और खुशी से झूम झूम उठता है
भीतर कोने कोने में चिपकी मुस्कानें देख
और थोड़ी ही देर में
बाहर आकर
लगाने लगता है
किसी नए मेहमान को गले
घर सोचता है कि
आज सारे बड़े बड़े घर
कितने बौने लग रहे उसके सामने
शादी का घर
कितना ही छोटा हो
उसमें सदा बनी बची रहती है
हर आने वाले के लिए
एक आत्मीय और सुविधाजनक जगह
रामस्वरूप दीक्षित

















