दर्शक पर जबरिया इश्तहार थोपने वाले मल्टीप्लेक्स पर जुर्माना, समय की कीमत

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प्रतीकात्मक फोटो

-सुनील कुमार Sunil Kumar

कर्नाटक के एक जिला उपभोक्ता अदालत ने देश के सैकड़ों मॉल्स में सिनेमाघर चलाने वाली कंपनी, पीवीआर-आइनॉक्स पर बहुत देर तक विज्ञापन दिखाने की वजह से एक लाख रूपए का जुर्माना लगाया है। पिछले बरस राजधानी बेंगलुरू में एक परिवार शाम 4.05 बजे की फिल्म देखने पहुंचा, और फिल्म 4.30 बजे शुरू हुई। इस दौरान केवल विज्ञापन दिखाए जाते रहे। इस पर इस दर्शक ने उपभोक्ता अदालत में शिकायत की, वहां से शिकायतकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए उसे मानसिक परेशानी के लिए 20 हजार रूपए, और मुकदमे की लागत के लिए 8 हजार रूपए देने का आदेश हुआ। उपभोक्ता अदालत ने कहा कि लोगों का समय बहुत कीमती है, और किसी को भी दूसरे वक्त और पैसों का अनुचित लाभ उठाने का अधिकार नहीं है। फिल्म को निर्धारित समय से 30 मिनट देर से शुरू करना, और समय का जबर्दस्ती व्यापारिक इस्तेमाल करना गलत है, खासकर ऐसे लोगों के लिए जो व्यस्त रहते हैं। अदालत ने कहा कि लोग तनावमुक्त होने के लिए मनोरंजन चाहते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनकी और कोई जिम्मेदारियां नहीं हैं।

आम लोगों को यह बात पता नहीं होगी कि एक समय भारत सरकार के विज्ञापन जारी करने वाले विभाग, डीएवीपी के नियम रहते थे कि किसी अखबार में विज्ञापनों, और संपादकीय सामग्री का अनुपात क्या रहना चाहिए। शायद 40 फीसदी विज्ञापनों की अधिकतम सीमा थी। अब तो सब कुछ इतना बाजारू हो गया है कि महानगरों के बड़े अखबारों में शुरू के कई पेज तो सिर्फ विज्ञापन निकल जाते हैं, तब लोग खबरों तक पहुंच पाते हैं। लेकिन फिर भी अखबारों में इश्तहारों के पन्ने पलटना आसान है, टीवी पर भी लोग चैनल बदल सकते हैं, लेकिन सिनेमाघरों में जाने के बाद लोगों के हाथ सिवाय बर्दाश्त करने के और कुछ नहीं रह जाता। और आजकल के महंगे सिनेमाघरों में इंटरवेल का वक्त खानपान के अंधाधुंध महंगे सामान बेचने में लगाया जाता है जो कि एक अलग मुद्दा है। बाहर से न खानपान सामान ले जाने की इजाजत मिलती, और न ही पानी की बोतल ले जाई जा सकती। मानो कोई विस्फोटक ले जाया जा रहा हो उस अंदाज में मल्टीप्लेक्स के गार्ड तलाशी लेते हैं। किसी जागरूक उपभोक्ता संगठन को ऐसी कारोबारी गुंडागर्दी के खिलाफ भी उपभोक्ता अदालत जाना चाहिए। आज मध्यमवर्गीय परिवार अगर किसी तरह हिम्मत जुटाकर परिवार सहित सिनेमाघर जाए, तो वहां पर वहीं का महंगा सामान खरीदकर खाना-पीना मजबूरी रहती है। यह पहली नजर में एक एकाधिकार के बेजा इस्तेमाल का धंधा दिखता है, और इसका विरोध कई स्तरों पर किया जा सकता है। कोई जागरूक राज्य सरकार भी इसके खिलाफ नियम बना सकती है, और ऐसे एकाधिकारी धंधे को सुधार सकती है।

ग्राहकों में जागरूकता न होने से, और संगठित कारोबार के खिलाफ अदालत तक न जाने से देश के लोगों का बड़ा नुकसान हो रहा है। भारत में खानपान की चीजों पर उनमें मिलाए गए शक्कर और नमक, फैट या दूसरे रसायनों की जानकारी पैकिंग पर साफ-साफ नहीं दी जाती, नतीजा यह होता है कि लोग उसी कंपनी का वही सामान हिन्दुस्तान में कई गुना अधिक शक्कर वाला पाते हैं, और वही सामान पश्चिमी देशों में वहीं कंपनियां कम शक्कर का बेचती हैं। यहां तक कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत में बहुत छोटे दुधमुंहे बच्चों के खाने के लिए बनाए गए डिब्बाबंद बेबी-फूड में कई गुना अधिक शक्कर मिलाकर बेचती आई है, जो कि अभी भारत के कुछ संगठनों ने पकड़ी है। देश में सरकारों से तो ग्राहकों के हक की अधिक हिफाजत की उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि कारोबारी संगठनों की ताकत बहुत अधिक रहती है, और सरकार के भीतर उनकी आर्थिक घुसपैठ भी गहरी और मजबूत रहती है। यही वजह है कि सिगरेट और शराब जैसे सामानों के ब्राँड वाले दूसरे मासूम दिखते सामानों की बिक्री अभी कुछ अरसा पहले तक धड़ल्ले से चलती थी, और ऐसे सरोगेट-इश्तहार पर कोई रोक नहीं लगाई जाती थी। कई दारू कंपनियां अपने ब्राँड की ताश की गड्डियां बनाकर बेचने का दिखावा करती थीं, और सालाना उनका ताश का जो कारोबार रहता था उससे हजारों-लाखों गुना अधिक का वे इश्तहार करती थीं। यह सीधे-सीधे कानून, सरकार, और जनता-ग्राहक से धोखाधड़ी का मामला था, लेकिन हिन्दुस्तान में जिसके पास मोटा पैसा, जिनके धंधे की वकालत करने के लिए कोई कारोबारी संगठन हैं, वे गुटखा और पान मसाला बेचने के भी जरिए निकाल लेते हैं। यह वह देश है जहां सरकार की बार-बार की चेतावनी के बाद भी देश के कुछ सबसे बड़े अखबार लगातार ऑनलाइन सट्टे के इश्तहार छाप लेते हैं, और उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं होती है।

हमारा तो यह मानना है कि जो अखबार या टीवी चैनल सोच-समझकर और योजनाबद्ध तरीके से झूठ और नफरत फैलाने का काम करते हैं, उनके खिलाफ भी उपभोक्ता अदालत से लेकर कानून की दूसरी नियमित अदालतों तक जाने का पर्याप्त कानूनी अधिकार रहता है कि लोग अखबार भी खरीदकर पढ़ते हैं, और टीवी चैनलों के लिए भी वे भुगतान करते हैं। एक ग्राहक का यह हक रहता है कि वह उसे मिले सामान में अगर झूठ दिया जा रहा है, तो उसके खिलाफ उपभोक्ता अदालत तक जाए, या कानून की अदालत तक जाए। जिन देशों में ग्राहकों के संगठन मजबूत रहते हैं, या ग्राहकों के हितों के लिए कोई जनसंगठन काम करते हैं, जहां बड़ी कंपनियों और बाजार की साजिशों पर नजर रखने, और प्रयोगशालाओं में उनके जांच करने की जागरूकता रहती है, वहां पर बाजार की गुंडागर्दी और जुर्म कम भी होते हैं। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में बाजार के खानपान और फास्टफूड के लिए पैमाने नहीं बनाए गए हैं, जबकि दुनिया भर के सर्वे और शोधकार्य बताते हैं कि ये लोगों की सेहत को बिगाडऩे के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। यह सिलसिला थमना चाहिए। लोकतंत्र में पांच बरस में एक बार जनप्रतिनिधि को चुनना ही जनता की जिम्मेदारी नहीं है, जनता की जिम्मेदारी संविधान और कानून के तहत मिले हर किस्म के हक को लागू करवाने की जिद से ही पूरी हो सकती है। बात सिनेमाघर में लोगों पर इश्तहारों को जबरिया थोपने से शुरू हुई, और दूर तक चली गई। सच भी यही है कि हिन्दुस्तान में सामान या सेवा खरीदने पर कई किस्म का शोषण कदम-कदम पर होता है, और उसके खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है। स्कूल हो, अस्पताल हो, कपड़े-जूते हों, या खानपान हो, या जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया है, टीवी या अखबार हों, हर किसी पर ग्राहक को नजर रखनी चाहिए, और अपने हक के लिए उठ खड़ा होना चाहिए। वकीलों के भी एक तबके को चाहिए कि ग्राहक की जागरूकता से होने वाले फायदे की कुछ मिसालें उपभोक्ता अदालत, और दूसरी अदालतों तक में पेश करें, और इससे हो सकता है कि आगे उनको दूसरे भी कई मामले मिलें।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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