-अनीता मैठाणी-

ठेले पर आड़ू देखते ही मुंह में पानी आ गया, बच्चों से पूछा- आड़ू ले लूं क्या। उनका जवाब था नहीं। थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि लगा मुझे तो अच्छे लगते हैं। मैंने गाड़ी रोक दी, बेटी ने कहा- आप अपने लिए ले लो। मैं हाँ कहते हुए ठेले तक चली गयी। वो बड़ी हो रही है साथ ही समझदार भी।
मैंने सबसे पहले पूछा- भइया कैसे दिए आड़ू। वो उन पर पानी छिड़कते हुए बोला- सौ रूपये किलो। मैंने कहा- आधा किलो कर दो और छांटने लगी। साथ ही सोच रही थी कि बच्चे तो खाएंगे नहीं मैं क्या अकेले इतना खा लूंगी। पचास रूपये का नोट थमा कर आड़ू लेकर आ गई। घर जाकर सबसे पहले आड़ू को पानी में भिगोने रख दिया। बच्चों को खाना खिलाया और जैसे ही फाारिग हुई, आड़ू को अच्छे से रगड़-रगड़ कर धोया। इस पर रोये से होते हैं जिसे अच्छे से साफ करना जरूरी होता है। आधे आड़ू काटे और पुराने दिनों को याद करते हुए जीरा, नमक, मिर्च और सरसों के तेल का हाथ लगाकर चटपटा आड़ू रचाया और पुराने दिनों को याद करते हुए चटखारे लेकर खाया। और फेसबुक पर साझा करने के लिए फोटो भी क्लिक कर ली।
बदलते समय के साथ लोगों ने अपने घरों को किले (बाउण्ड्री वाॅल) में तब्दील कर लिया हैं। घर के आंगन को मार्बल और टाइल्स लगाकर सौन्दर्यीकरण कर लिया गया है। जैसे पिछले कुछ वर्षों से देहरादून में शहर के सौन्दर्यीकरण के नाम पर यहाँ बहने वाली नहरों को पाइपों में डाल दिया गया। सड़क के दोनों ओर के लहलहाते छायादार पेड़ों को गिरा दिया गया।
विडम्बना कहें कि या यहाँ के लोगों का दुर्भाग्य- कि आंगन में लगे फलों के पेड़ माडर्न होने में बाधा होने लगे, पेड़ सब कटवा दिये गये हैं। फलों का क्या है वे उसे खरीदकर खाने में सक्षम हैं, ये सोच बढ़ती जा रही है। ये कोई बइुत पुरानी बात नहीं है जब देहरादून में हरेक घर में, नही ंतो हर दूसरे घर में 4-6 फलों के पेड़ जैसे- लीची, अमरूद, आम, आड़ू, चकोतरा, अनार, पपीता, पोलम, नींबू हुआ करते थे, छोटा सा किचन गार्डन भी हुआ करता था। परंतु माडर्नाइजेशन की रेस में आनन-फानन में फलों के पेड़ गिराकर आंगन को सीमेंट से लेप दिया गया।
खेती-किसानी छोड़ दी, जमीनें बेच दी, गाय-मवेशी पालना सब बंद, अच्छे भले पेड़ कटवा दिये, कंकरीट का जंगल उग आया है पूरे शहर में। यहाँ होने वाले स्वदेशी (indigenous) फल-फूल लुप्त प्रायः हो रहे हैं। हाइब्रिड फूलों की चमक के आगे स्वदेशी फूल टिक नहीं पाए ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम इसे अब भी समझ नहीं पा रहे हैं। यहाँ तक कि शादी ब्याह में मंडप सजाने के लिए इस्तेमाल होने वाले गेंदे के फूल की जगह भी अब जरबेरा और ग्लेड्यूलस ने ले ली है।
अब कह रहे हैं- ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, धरती का तापमान बढ़ रहा है। अरे भई इसका सारा श्रेय हम ही को जाता है, कोई एलियंस थोड़े ही ना ये सब कर रहे हैं।
हमारे देश के कई राज्य गर्मी तो क्या साल के अन्य महीने भी पानी की किल्लत से जूझते हैं, सूखे की मार झेलते हैं। और यहाँ दूनवासियों ने तो अपने अच्छे-खासे हरे-भरे दून की तस्वीर ही बदल कर रख दी है। दून में कुछ हरा बचा है तो वो रिज़र्व फाॅरेस्ट है। मसूरी वन प्रभाग, रायपुर, लाडपुर, ऋषिकेश वन प्रभाग- थानो, लच्छीवाला, चकराता वन प्रभाग- सेलाकुई आदि। हमें इन जंगलों को भी भूमाफियाओं की नजर से बचाना होगा।
अनीता मैठाणी