उर्दू अदब की पहचान कोटा का दशहरा मेला मुशायरा बन गया अनुग्रहीत करने का मंच

अगर जो पर्चियां शायरों के हाथ में नाम लेने वाली थी अगर वह थम जातीं और अनावश्यक वक़्त बचा लिया जाता तो, बहुत कुछ नए शायर भी अपना हुनर पेश कर सकते थे

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-अख्तर खान अकेला-

akhtar khan akela
अख्तर खान अकेला

कोटा मेला दशहरा का मुशायरा मंच उर्दू अदब की पहचान रहा है। लेकिन अब मुशायरा मंच शायरों की भीड़ और अनुग्रहीत करने का मंच बन गया है। यह समझना जरुरी है कि यह तमाशा बनाया गया या फिर अनजाने में हुआ। लेकिन कुछ न कुछ तो हुआ है। हालांकि, इस मुशायरे में अधिकतम मेरे हमदर्द, मेरे अपने शायर और आयोजक थे। लेकिन में क्या करूँ , में उर्दू अदब का क़त्ल यूँ होते हुए नहीं देख सकता।
एक अदब , उर्दू अदब ,, जिसकी पहचान, ग़ज़ल और मुशायरा है। लेकिन इस पहचान को कल कोटा में मेला दशहरा मुशायरे के वक़्त अपने ही लोगों ने हिंदी से दोस्ती करके हिंदी में कमोबेश छुपा ही दिया। खेर मुशायरा वह भी दशहरे का मुशायरा था। सभी मनमानी करते हैं, इसमें भी मनमानी हुई। लेकिन अगर जो पर्चियां शायरों के हाथ में नाम लेने वाली थी अगर वह थम जातीं और अनावश्यक वक़्त बचा लिया जाता तो, बहुत कुछ नए शायर भी अपना हुनर पेश कर सकते थे। मुशायरे और कवि सम्मेलन में फ़र्क़ यह है कि यहां सभी धर्मों के सभी मज़हब के लोग मुशायरा पढ़ने आये, लेकिन कवि सम्मेलन में देखते हैं, यह सभी धर्मों के लोगों में से कितने लोगों को कविताएं पढ़ने बुलाते हैं। कवि सम्मेलन का बजट और मुशायरे के बजट में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। कवि तो गिनती के होते हैं, जबकि मुशायरे के शायर कहो या कवि कहो, बे गिनती के हो जाते हैं। इस मुशायरे को ऐतिहासिक बनाया जा सकता था। चुनाव प्रचार, कोटा के विकास सोंदर्यकरण की वाहवाही, पर्यटन प्रचार का हिस्सेदार बनाया जा सकता था। लेकिन अनुग्रहित करने के चक्कर में मंच भर गया और मुशायरे की रस्म अदायगी हुई। लेकिन हमने क्या कुछ खोया और क्या कुछ पाया यह सोचने की बात है। कोटा के दशहरे मेले के मुशायरे में जिन स्थानीय लोगों ने कलाम पढ़े, उसमे से दो लोग , कोटा के कवि सम्मेलन का हिस्सा भी बन सकते थे। अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का हिस्सा उन्हें बनाकर यहां मुशायरे को और सशक्त किया जा सकता था। लेकिन मुशायरा ही तो है, कुछ भी कर लो, कोई कुछ कहेगा नहीं दो-पांच, दस-पंद्रह का ग्रुप बनेगा। तारीफें करेगा कि लो हो गया मुशायरा हिट।
कोटा के मुशायरे में, लता हया सर्वाधिक उपयुक्त शायर थीं। उन्हें अगर बुला लिया जाता तो कोटा के मुशायरे का इतिहास बन जाता। लेकिन यहां तो मुशायरे से ज्यादा ओब्लाइज करना था, जो हो गया। मुशायरा अखिल भारतीय दशहरे मेले का , और यहां अखिल भारतीय स्तर के महमान तो छोडो राज्य स्तर के महमान ही नहीं। किसी ने कोशिश ही नहीं की कि उर्दू एकेडमी के अध्यक्ष हसीन रज़ा को बुलाया जाता। हसीन रज़ा से नाराज़गी अगर थी , तो केबिनेट मंत्री , अल्पसंख्यक विभाग , सालेह मोहम्मद को बुलाया जाता। अगर उनसे खुश नहीं थे , तो , आधे अधूरे ही सही , अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमेन, विधायक रफ़ीक़ खान को बुला लिया जाता। उन्हें , नहीं तो , विधायक , चेयरमेन , हज कमेटी अमीन कागज़ी को बुला लेते। अगर वोह नहीं थे तो राजस्थान वक़्फ़ बोर्ड के चेयरमेन खानु खान साहब को बुला लेते। ,जुबेर खान मेवात बोर्ड, वाजिब अली ना जाने कोनसा बोर्ड, अल्पसंख्यक वित्त विकास निगम, अगर वोह भी नहीं थे , तो हाकम अली , राजस्थान वक़्फ़ विकास परिषद के चेयरमेन को बुला लेते। कोटा में लाडपुरा के प्रधान नईमुद्दीन गुड्डू, नगर पालिका केथून की चेयरमेन आयना महक को बुला सकते थे। लेकिन शायद इस तरफ आयोजकों का विज़न ही नहीं था। फिर आयोजकों में ऐसे कौन थे जिनकी उर्दू अदब से विशेषग्यता हो। उर्दू अदब, मासूम अदब है। उर्दू अदब के जानकार, तो इस मामले में चुप्पी ही साध लेते हैं। कोटा में नादाँ के हाथ में उस्तरा आ जाने की कहावत चरितार्थ हो गई। मुशायरा , सिर्फ मुशायरा ही नहीं , उर्दू अदब की परफॉर्मेंस थी। कोटा के उर्दू से मोहब्बत करने वालों के लिए मोटिवेशन था। लेकिन इस मौके पर मुशायरे के बीच बीच में साहब के आने जाने के हिसाब का एडजस्टमेंट ने मुशायरे के मूड की किरकिरी ही कर दी। मुशायरे के पहले महिला ऐंकर की जुबां में चाहे हिंदी अल्फ़ाज़ थे , लेकिन उनका तलफ़्फ़ुज़ तो फिर भी सही था, लेकिन पुरुष ऐंकर , का तलफ़्फ़ुज़ तो उर्दू अदब के लिए तो माशा अल्लाह था। मुशायरा तो ,, कुछ इर्द गिर्द बैठे लोगों के लिए चाहे हिट कहा गया हो, लेकिन , अफ़सोस के यह मुशायरा आने वाले कल, राजनितिक सद्भाव , राजनितिक मुनाफे में घाटे का सोदा बना दिया गया। मेला दशहरा का यह मुशायरा , जो कमिया , जो मनमानियां छोड़ गया है, वोह अगले मेले दहशरे में पूरी भी किया जाना संभावित नहीं है, क्योंकि वोह मुशायरा , चुनाव के वक़्त होगा। इसलिए अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा। कोटा उत्तर के खुसूसी वोटर्स के लिए लता हया की मौजूदगी में एक मुशायरा करवाकर, इस पाप का प्रायश्चित कर सकते हैं। एक कवि सम्मेलन , दूसरे इलाक़े में करके , इसे बेलेंस कर लो, फिर मत कहना के पहले सावचेत नहीं किया , पहले बताया नहीं।

(अख्तर खान अकेला एडवोकेट एवं स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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