
-धीरेन्द्र राहुल-

राजस्थान के पशुपालन मंत्री जोगाराम कुमावत का कहना है कि गौमाता को आवारा मत कहो। इसके बजाय निराश्रित गोवंश कहा जाए।
यहां मुझे निराश्रित गोवंश कहने पर भी आपत्ति है! एक कल्याणकारी राज्य और वह भी घोर सनातनी राज्य में गायें निराश्रित कैसे हो सकती हैं? और अगर आपके राज में होने के बावजूद गायें निराश्रित हैं तो फिर आप सत्ता में क्यों हैं?
कभी गाय को माता कहते हो, कभी गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा देने की बात करते हो लेकिन जब गाय को बचाने के लिए ठोस रूप से कुछ करने की आवश्यकता होती है, तब कोई जुमला उछालकर पतली गली से निकल लेते हो।
इसी फितरत को देखते हुए स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने कहा था कि अन्य दुधारू पशुओं की तरह गाय भी एक पशु है, उसे माता का दर्जा देना ठीक नहीं।
मेरा जोगाराम जी से कहना है कि अगले चार साल
(अब इतना ही समय बचा है )
में आप सिर्फ संभागीय मुख्यालय स्थित शहरों में ही गायों को बचाने का बीड़ा उठा लें तो आम जनता पर बड़ा उपकार होगा।
कोटा शहर में सड़कों पर जितनी भी आवारा या निराश्रित गायें हैं, वे सब गंभीर रूप से बीमार हैं। वे प्लास्टिक पन्नियों में लिपटी भोजन सामग्री खाती हैं। वे जब मरती हैं तो उनके पेट से पांच सात किलो प्लास्टिक के गोटे निकलते हैं। पहले गायों को आफरा आता है, फिर भूख खत्म हो जाती है। फिर वे तिल तिल कर मरती हैं। इसके अलावा वे वाहनों से टकराकर भी जख्मी होती हैं और मरती हैं।
तीसरी बात कि गायों और सांडों के हमले से भारी संख्या में राहगीर और वाहन चालक भी कालकवलित हो रहे हैं। हाड़ौती में पिछले पांच साल में पचास से भी ज्यादा लोग गायों के हमले में मारे गए हैं।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भरतसिंह तो सांडों से होने वाली मौतों को उठाते रहे हैं लेकिन भाजपा विधायकों में तो इतना भी नैतिक साहस नहीं है।
शहर में निराश्रित गायों की भरमार है। हालत यह है कि गांव वाले अपनी आवारा गायों को भी हांककर कोटा शहर में छोड़ जाते हैं।
इसलिए निगम की गोशालाओं में भारी संख्या में गायें मरने के बावजूद शहर की सड़कों पर उनकी संख्या कम नहीं होती। कोटा में दो नगर निगम हैं लेकिन वे आवारा मवेशियों को नहीं पकड़ते। वे तर्क देते हैं कि गोशालाएं ठसाठस भरी पड़ी हैं और गायों को रखने की जगह नहीं है। ऐसे में नई पकड़ी गायों को रखे तो कहां रखें ?
इसलिए जोगाराम जी, निराश्रित गायों के हित में आप कुछ करना चाहते हैं तो कोटा शहर के उम्मेदगंज-डाढ़ देवी क्षेत्र में खाली जमीन उपलब्ध है, वहां नई गोशाला बनाए। जिसकी क्षमता ढाई हजार निराश्रित गायें रखने की हो। इससे शहरवासियों को गोआतंक से मुक्ति मिलेगी।
कोटा में तो नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल ने 300 करोड़ रूपए की लागत से देवनारायण योजना बनाई। शहर में जहां तहां पड़े पशुपालकों को रहने को मकान और पशुपालन के लिए शैड/खेल बनाकर भी दी। गोबर गैस संयंत्र लगाया। गोबर खरीद और गोबर गैस के वितरण की भी व्यवस्था की।
बेहतर तो यह होता कि इस योजना को राज्य के बड़े शहरों में निगमों, नगर विकास न्यासों और शहर विकास प्राधिकरणों के माध्यम से लागू करने की व्यवस्था की जाती लेकिन हुआ इसका उल्टा।
पिछले आठ महीने में यह हुआ कि शहर में मुफ्त का हरा चारा खिलाने के लिए देवनारायण योजना में गए कई पशुपालक गायों सहित शहर के पार्कों में वापस लौट आए हैं।
दूसरे शहरों का पता नहीं लेकिन कोटा शहर में जगह जगह हरा चारा बेचने वाले बैठे रहते हैं। कार और दुपहिया वाहनों पर सवार धर्मप्राण जनता इन्हीं से दो चार हरे पूले खरीदकर वहीं खड़ी गायों को डाल देते हैं।
ये गाएं दुधारू होती हैं। इन्हें पालने वाले चारे वालियों को पैसा देते हैं। ताकी महंगा चारा न खरीदना पड़े। पशुपालक दूध निकालकर गायों को सड़क पर ही छोड़ जाते हैं जो रात को जुगाली करने साफ सुथरी सड़क पर आ विराजती हैं। अब वाहन चालक बच सकते हो तो बच लें अन्यथा रात के अंधेरे में लोग चोटिल होते और मरते रहते हैं। गायें भी जख्मी/ विकलांग होती रहती हैं, कई मर जाती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)
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