जनाब! यह नहरें नहीं बनी है डूब मरने या जान देने के लिए

कोटा शहर में तो दोनों मुख्य नहरों दांई और बांई की हालत और भी बदतर है। अब कोटा शहर के बड़े आबादी क्षेत्र में से होकर मुख्य नहर से लेकर माइनर तक गुजरती है। हालांकि जब साल 1960 में कोटा बैराज के बनने के बाद जगह समूचा नहरी तंत्र विकसित किया गया था तो उस समय इसके आसपास कृषि क्षेत्र ही था और वह भी राजस्थान पर सबसे अधिक उपजाऊ मगर अब वहां खेत नहीं सीमेंट-कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं

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नहर

 -कृष्ण बलदेव हाडा-

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कृष्ण बलदेव हाडा

राजस्थान के कोटा में चंबल नदी पर बने कोटा बैराज से निकली दांई और बांई मुख्य नहरे बनी तो हाडोती अंचल के किसानों में खुशहाली लाने के लिए थी लेकिन अकसर यह नहरें सिंचाई से दीगर वजहो में उपयोग में लाने के कारण चाहे-अनचाहे कारण के चर्चा में आ जाती है लेकिन हो भी क्यों नही,जब इसी नहरी तंत्र में एक ही दिन में तीन किशोरियों सहित चार युवाओं की डूबने से जान चली जाए, जिसने जिला मजिस्ट्रेट ओपी बुनकर तक को ऐसे अप्रिय हादसों से चिंतित होकर प्रशासन खासतौर से पुलिस को नहाने-धोने जैसे गैर जरूरी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए गिरफ्तारी जैसे सख्ती बरतने तक के निर्देश देने के लिए मजबूर कर दिया।

जिला मजिस्ट्रेट ओपी बुनकर की चिंता वाजिब है क्योंकि अकसर मानवीय लापरवाही लोगों की जानें लीलती रही है। ताजा घटना यह है कि कोटा जिले के दीगोद क्षेत्र में दाईं मुख्य नहर की डाबर ब्रांच में रविवार को 12 से 21 साल की की तीन किशोरियां पानी के तेज बहाव में बह गई तो सुल्तानपुर इलाके में अमरपुरा नापाखेड़ा मार्ग पर दो किशोर नहर में बह गए जिसमें से एक तो जैसे-तैसे बाहर निकल आया, लेकिन दूसरा इतना सौभाग्यशाली नहीं रहा और डूब गया। इनके डूबने की वजह चाहे जो भी बताई जा रही हो, लेकिन यह सत्य है कि मानवीय भूलें ही अकसर ऐसे हादसों की वजह बनती है।

नहरों-वितरिकाओं के किनारे बनी सड़कें सामान्यता यातायात के आवागमन के लिए नहीं बनाई जाती, लेकिन ऐसा होता है कि इसका उपयोग यातायात में किया जाता है। मुख्य नहर से लेकर माइनर तक लोगों के नहाने-धोने के लिए नहीं बनाए गए हैं लेकिन शहरी क्षेत्रों में जिन भी आबादी वाले इलाकों में होकर या ग्रामीण क्षेत्रों में जिन भी गांव के नजदीक से होकर नहरें गुजरती है, वहां के लोगों को अकसर वहां नहाने-धोने ही नही बल्कि बच्चों के मुंड़न से लेकर मौत-मरण में सिर मुंडवाने तक के कार्यक्रमों को संपन्न करवाते हुए देखा जा सकता है। कई जगह तो लोगों ने घाट ही बना दिए हैं जहां महिलाएं न केवल नहाती-धोती हैं बल्कि छोटे बच्चों को घर में नहलाने के लिए चरों में पानी भर कर ले जाती है जबकि नहरी तंत्र को विकसित करने की अवधारणा में ऐसे कोई भी क्रियाकलाप को शामिल नहीं किया गया था। यह पूरा तंत्र सिर्फ और सिर्फ सिंचाई के लिए है।

कोटा शहर में तो दोनों मुख्य नहरों दांई और बांई की हालत और भी बदतर है। अब कोटा शहर के बड़े आबादी क्षेत्र में से होकर मुख्य नहर से लेकर माइनर तक गुजरती है। हालांकि जब साल 1960 में कोटा बैराज के बनने के बाद जगह समूचा नहरी तंत्र विकसित किया गया था तो उस समय इसके आसपास कृषि क्षेत्र ही था और वह भी राजस्थान पर सबसे अधिक उपजाऊ मगर अब वहां खेत नहीं सीमेंट-कंक्रीट के जंगल खड़े हो गए हैं क्योंकि किसानों-बिल्डरों के लालच ने शहरी आबादी क्षेत्र को विकास के लिये लगभग अनुपयोगी बंजर पठारी क्षेत्र की ओर मोड़ने के बजाये कोटा के पुराने रिहायाशी इलाके के नजदीकी व आसपास के ही कृषि क्षेत्रों की जमीन पर बिल्डिंगों को खड़ा करवा दिया और अत्यंत उपजाऊ कृषि क्षेत्र को नष्ट करने के इस कारनामे में मोटे मुनाफे के तलबगार किसान-बिल्डर ही नहीं बल्कि सरकार-प्रशासन भी बराबर के भागीदार रहे जो कृषि भूमि पर रिहायशी इलाके आबाद करने की अनुमति देते रहे-पट्टे जारी करते रहे।

अब हालत यह है कि शहरी क्षेत्र में तो नहरे-वितरिकायें कचरा पात्र बन गई है। इस नहरी तंत्र के पास जहां भी आबादी है, वहां के लोग आमतौर पर इन नहरों का उपयोग अपने घरों का कूड़ा-कचरा डालने में करते हैं। कई जगह तो लोगों ने नहरों के किनारे दुधारू मवेशी पालने के लिए छोटे-छोटे तबेले तक बना लिए हैं। थेगड़ा नहर इसकी बानगी है जहां नहर किनारे चाय की थड़ियां तक सज चुकी है। कोटा शहर में रहने वाले मगर जिले के ग्रामीण क्षेत्र सांगोद से कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक भरत सिंह कुंदनपुर विधानसभा से लेकर मीडिया तक में कोटा शहर की नहरों को कचरा पात्र बनाने से रोकने का मसला जोर-शोर से उठा चुके हैं, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई सार्थक काम प्रशासनिक और सरकारी स्तर पर नहीं किया गया है।

कोटा में तो इस नहरी तंत्र और रियासतकाल में महाराव धीरदेव और अन्य शासकों के बनाए तालाबों का दुर्भाग्यशाली तरीके से उपयोग आत्महत्या करने में किया जा रहा है। कोटा की नहरों-तालाबों में कूदकर आत्महत्या त्याग करने की खबरें आम है। किशोरपुरा गेट से निकली दाईं मुख्य नहर तो जैसे आत्महत्या के इच्छुक लोगों के लिए “स्वर्ग” या “फाइनल डेस्टिनेशन” बन गई है जहां संभवत् कोटा में सबसे अधिक आत्महत्या की घटनाएं होती है। पिछले साल रेलवे कॉलोनी में रहने वाली एक महिला तो आधा शहर पार कर आत्महत्या के लिए इस नहर तक पहुंची। हालांकि एक कटु सच है कि दुर्भाग्य को गले लगाने पर आमादा ऐसे दुर्बल मानसिकता वाले लोगों को रोक पाना मुश्किल ही है।

इसके बावजूद इतना तो तय है कि नहरी तंत्र को नहाने-धोने,मरण -मौत पर मुंड़न के लिये केश कतर वाने जैसे सामाजिक रीति-रिवाजों के आयोजन का केंद्र बिंदु बनने, गोठ सरीखे भोज कार्यक्रम का आयोजन स्थल बनाने से तो रोका ही जा सकता है इसीलिए जिला मजिस्ट्रेट को आहत मन से नहरी तंत्र का दुरुपयोग रोकने के लिए पुलिस को सख्त निर्देश देने को बाध्य होना पड़ा है। जिला मजिस्ट्रेट ओपी बुनकर ने कोटा जिले में रविवार को पानी में डूबने की पांच दुर्घटनाओं पर गहरा दुख व्यक्त करते हुये कहा है कि ये दुर्घटनाएं बहुत खेदजनक है। इन दिनों नहर में पानी चालू है। पुलिस प्रशासन इसका पूरा ध्यान रखे कि कोई बहते नहरी पानी में नहाने, कपड़े धोने की कोशिश नही करे। इसके साथ ही किसी के बहने पर तत्काल कार्रवाई करें। पुलिस ऐसे व्यक्ति को जो जान-बूझकर जान जोखिम में डाल रहा है, तेज बहते पानी में नहर में नहाने, कपड़े धोने की कोशिश करता है तो उसे रोकने की कार्यवाही करें ताकि ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं हो। जिला मजिस्ट्रेट ने निर्देश दिए हैं कि इसके लिये पुलिस, राजस्व विभाग के सभी अधिकारी, कर्मचारी एवं पंचायत राज संस्थाओं के कार्मिक अपने क्षेत्र में सतर्क रहें। ऐसे तत्वों को रोकें। अगर ऐसा कोई प्रकरण मिले तो तत्काल पुलिस की मदद से उसे पाबंद करें ताकि इस प्रकार की दुर्घटनाओं से बचा जा सके। जरूरत पड़ने पर पुलिस उसे गिरफ्तार भी कर सकेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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D K Sharma
D K Sharma
2 years ago

लेखक के विचारो और चिंता से में पूर्णतया सहमत हूं। नहर तंत्र खेतों की सिंचाई के लिए बनाया गया था लेकिन खेती की जमीन पर कोलोनियां काट दी गई हैं। अब इन नहरों का क्या औचित्य रहेगा। घरों से कचरा एकत्र करने के लिए नगर निगम की गाड़ी रोज आती है लेकिन फिर भी लोग नगर में प्लास्टिक और दूसरा कचरा डालते हैं। इस नागरिकों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए। मुझे तो मेरे मित्रों ने ये भी बताया है कि कचरा एकत्र करने वाले ही खुद नहर में कचरा डाल देते हैं ताकि डीजल की बचत हो सके।