
-मनु वाशिष्ठ-

गेंद और बल्ले से खेलना,बच्चों को आज ही नहीं, बहुत प्राचीन समय से पसंदीदा खेल रहा है। भगवान कृष्ण का भी किस्सा सबने पढ़ा ही होगा जब उनकी गेंद यमुना नदी में चली गई थी और उसे लेने श्री कृष्ण नदी में कूद गए। जहां उनका युद्ध कालिया नाग से हुआ था। खैर यह तो पौराणिक कथा है।
अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो अस्सी नब्बे पूरे सौ, पोशम्पा भई पोशम्पा डाकिए ने क्या किया, जैसे स्लोगन कितनों को याद हैं। मातापिता भी बच्चों को खेल अकेडमी में भेज कर ही खुश हैं, शायद इसीलिए बच्चों को भी ये खेल ग्रामीण या कमतर लगते हैं। पोशंपा, चोर सिपाही, पकड़ा पकड़ी, किलकिल काँटी, पिद्दू, शेर बकरी, छिपन छिपाई, शतरंज, पतंगबाजी, चंगा पौ, आंख मिचौली, सतोलिया, पिट्ठू, गिल्ली डंडा, कुश्ती, कबड्डी जैसे ग्रामीण बिना खर्चे वाले ये खेल प्राय लुप्त होते जा रहे हैं। इन खेलों में जोश उत्साह से भरी टीमें प्रोत्साहित करती थीं। इस तरह के खेल वर्जिश, एकाग्रता व भाईचारा बढ़ाते थे। वैसे भी पुराने समय में कपड़े की गेंद बनाकर ऐसा कौन है जो नहीं खेला होगा। सतोलिया, पिट्ठू, हॉकी, राजस्थान के गांव में लकड़ी (पेड़ की हॉकीनुमा स्टिक) और कपड़े की गेंद से खेला जानेवाला खुलिया, ये सब गेंद के ही खेल हैं।।
लेकिन बच्चे, युवा पीढ़ी फुटबॉल, क्रिकेट जैसे खेलों की ओर आकर्षित हो रही है। खेल संघों में, *क्रिकेट में कार्पोरेट्स, सत्ता का दखल एवं पकड़ होने की वजह से, यह एक *ग्लैमरस व चकाचौंध भरा, साथ ही *अकूत पैसा होने के कारण और कोई खेल आगे बढ़ ही नहीं पाया। देसी गेंद और बल्ले का विदेशीकरण कहें या पाश्चात्यीकरण, जब क्रिकेट होकर आया तो लोगों को बहुत लुभावना लगा। जैसे कि अपने देश में हल्दी वाले दूध को इतना तवज्जो नहीं दिया, जितना विदेश में गोल्डन दूध के नाम से मशहूर होने पर उसके नाम और दाम दोनों बढ़ गए।
क्रिकेट की दीवानगी का मुख्य कारण इसमें मिलने वाला पैसा भी है। एक खबर के मुताबिक क्रिकेट में आईपीएल टूर्नामेंट की ब्रांड वैल्यू 2019 के सीजन के दौरान, 51160 करोड़ रुपए, डफ एंड फेल्प्स फर्म के द्वारा आंकी गई थी, 2019 के अाईपीएल मैचों के टीवी पर प्रसारण से स्टार इंडिया को 2100 करोड़ रुपए का रेवेन्यू मिला था।

1977 के दशक में हॉकी बहुत ही लोकप्रिय खेल था, क्योंकि ध्यानचंद के समय में विश्व कप विजेता रहने के कारण से हॉकी सामान्य जन के अंदर प्रचलित थी। क्रिकेट के अंदर पहला विश्व कप 1983 में भारत ने जीता, उसके पश्चात क्रिकेट में ग्लैमर, टीवी, पैसा इत्यादि के आने से बूम सा आ गया और सारे खेल इससे पीछे पीछे पीछे चलने लगे। पढ़ाई लिखाई की जरूरत नहीं, और पैसा, मान सम्मान सब कुछ भरपूर। पढ़ने वाले बच्चों (डॉक्टर, इंजिनियर, साईंटिस्ट, सेना और भी कई विभाग) को कोई अपने शहर में भी जानता तक नहीं, कई बार तो पूरी जिंदगी खपा देते हैं। ऐसे में बिना किसी जी तोड़ पढ़ाई, अतिरिक्त योग्यता के भी नाम और पैसा कमाने की चाहत, क्रिकेट की ओर आकर्षित करती है, हालांकि बाद में तो इसमें भी स्पर्धा है। देश में आजादी के बाद, अंग्रेज तो चले गए थे, लेकिन उसका जैसा बनने की, दिखने की चाह, होड़ अमीरों के मन में छोड़ गए थे। क्रिकेट की *सरलता ने भी इसे लोकप्रिय बनाया, क्रिकेट के सीजन में बच्चे गली2 में अगर बल्ला नहीं भी हो, तो कपड़े धोने वाले डंडे से या किसी लकड़ी से ही बैट का काम ले लिया जाता है, एवं कोई सस्ती सी बॉल खरीद कर, ईंट पत्थर, स्टूल, कुर्सी किसी का भी स्टम्प बनाकर खेल लेते हैं। इसके अलावा दूसरे खेलों के लिए कुछ विशेष स्थान, सामग्री चाहिए होती है,जिसके लिए पैसा भी आवश्यक है। बैडमिंटन, गोल्फ, टेनिस, तीरंदाजी, वेटलिफ्टिंग, कुश्ती, फुटबॉल, निशानेबाजी, आदि इतनी आसानी से कहीं पर नहीं खेल सकते, इनके लिए प्रॉपर सामग्री, खेल कोर्ट वगैरह चाहिए होता है। इस तरह क्रिकेट में पैसा, ग्लैमर और सरलता की वजह से दूसरे खेल इतने लोकप्रिय नहीं हो पा रहे। और इतना खर्च के बाद भी सभी खेलों में औसत कितना मैडल जीत कर ला रहे हैं, विचारणीय प्रश्न है।
(मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान, यह लेखिका के निजी विचार हैं)