
-अशोक पांडे-
अदालतों ने लम्बे समय से नैनीताल में घर बनाने पर सशर्त बैन लगाया हुआ है. अगर आप तीन दर्ज़न सरकारी डिपार्टमेंट्स से नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट हासिल कर सकें तो आप मकान बना सकते हैं. ठीक-ठीक तारीख पता नहीं लेकिन यह शर्तें कोई तीन दशक पहले अस्तित्व में आई थीं. माना गया था कि इससे नैनीताल को धंसने और बर्बाद होने से बचाया जा सकेगा.
इन तीस सालों में भाई लोगों ने नैनीताल में उनसे भी ज्यादा नए मकान खड़े कर दिए जितने कुल डेढ़ सौ बरसों में नहीं बने थे. सर्टिफिकेट लाना कौन सा बड़ा काम है. आप सौ मांगो हम एक सौ एक ला देंगे. कागज से फाइल का मुंह ही तो ढंकना है!
आप कागज़ ले आओ नैनीताल में चांदनी चौक और कनाट प्लेस बना लो. कागज़ नहीं होंगे तो गुसलखाने की एक ईंट बदलने पर जेल हो जाएगी.
नैनीताल की माल रोड हर साल झील में धंसती जाती है, नालों में कूड़ा फंस जाता है, सड़क पर बाढ़ आ जाती है. हल्द्वानी की तरफ वाली पहाड़ी तीस साल से ढह रही है. हर साल बरसातों में उस इलाके में रहने वालों को उनके घर से उठा कर किसी स्कूल में शिफ्ट किया जाता है. सरकार उनके लिए कम्बल और आलू-पूड़ी का बंदोबस्त करती है. बरसात निबटती है तो उसी पहाड़ी पर नए मकान बनाए जाने शुरू हो जाते हैं. भूगर्भशास्त्री चेताते आ रहे हैं नैनीताल से बीचोबीच धरती के भीतर एक ऐसी पट्टी गुज़रती है जिससे होकर कभी भी भीषण भूकंप आ सकता है.
नैनीताल नगर को बसे करीब 180 साल हुए हैं. उस ज़माने की काली-सफ़ेद फोटुएं देखकर पता चलता है नैनीताल वाकई बहुत सुन्दर जगह रही होगी. शहर बसने के चालीस साल बाद एक पहाड़ी का बहुत बड़ा हिस्सा मौत बन कर यहाँ के बाशिंदों पर गिरा. डेढ़ सौ लोग मारे गए. गिरे हुए मलबे की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि उसे पाटने से एक बहुत बड़ा मैदान बन गया. फ्लैट्स कहे जाने वाले इस मैदान के एक हिस्से में साल भर फुटबॉल-हॉकी-क्रिकेट के टूर्नामेंट होते हों, दूसरे हिस्से में सैलानियों की गाड़ियों के लिए पार्किंग बनाई गयी है.
टूरिस्ट सीज़न में पार्किंग भर जाती है. शहर भर में तिल रखने की जगह नहीं बचती. किसी ज़माने में शांत रहने वाली मालरोड गाड़ियों और पर्यटकों की चिल्लपों से ठुंस जाती है. खूब जाम लगते हैं. चार-पांच गुने तक दाम में होटल में कमरा नहीं मिलता. अख़बारों में हैडलाइन लगती है – नैनीताल हाउसफुल!
मेरे मन के भीतर रहने वाला डरा हुआ इंसान हर बार नैनीताल को देख कर सोचता है – यह शहर कब तक बचा रह सकेगा?
समूचे हिमालय में बसी शहरी बस्तियों को ध्यान से देखना शुरू करेंगे, तो सब की स्थिति कमोबेश नैनीताल सी दिखाई देगी. इन जगहों तक पहुँचने वाली सड़कों में सड़क और विकास के नाम पर जिस तरह प्रकृति को नष्ट किया गया है वह एक अलग विषय है. कितने पेड़ काटे गए हैं, कितने घर उजाड़े गए हैं और कितने पहाड़ नेस्तनाबूद किये गए हैं, कोई हिसाब नहीं.
जोशीमठ एक अवश्यंभावी त्रासदी है. समूचा हिमालय ऐसी अनेक त्रासदियों के मुहाने पर धीमे-धीमे दरक रहा है. कितनी ही पहाड़ी बस्तियां अंत की तरफ रेंग रही हैं.
स्टीफन हॉकिंग ने अपनी मौत से चार साल पहले कहा था, “सभ्यताएं बहुत लम्बे समय तक नहीं बनी रह पातीं, वे खुद अपना विनाश कर लेती हैं.”
हम लोगों को थोड़ा ज्यादा जल्दी है.
अशोक पांडे
(लोक माध्यम से साभार)

















