
-अनीता मैठाणी-

चाँद सरीखी
लड़कियों के लिए
बने थे घरों में झरोखे,
लड़कों के लिए तो
दरवाजे थे ना।
बड़े ऊँचे दरवाजे
उनकी
कद के हिसाब से।
झरोखे छोटे थे
तिस पर,
ऊँचाई पर बनवाये गए थे
जिससे हवा तो आती थी;
सपने नहीं।
लड़कियों को
पंजों पर उचक कर
देखना होता था,
बाहर का कोलाहल
गली की हलचल।
झरोखे पर खड़े होने की
होड़ होती थी,
भीतर की लड़कियों में;
कभी इस बात पर
झगड़ा भी होता था।
वो देखना चाहती थीं
दरवाजों के रास्ते,
बाहर जाकर
खुली आँखों से
दुनिया।
दुनिया-
जहाँ वे रहती तो थीं
पर जीती नहीं थीं।
समय बीता,
और बीतते समय के साथ
खोल दिए गए दरवाजे;
लड़कियों के लिए।
जाने लगी थी लड़कियाँ
दरवाजों के रास्ते,
बाहर जाकर
खुली आँखों से;
देखने लगी थीं दुनिया।
फिर क्या हुआ ?
जो हुआ
उसे देखकर
लड़कियों को लगा
कि बाहर
भेड़िये भी हैं
इसलिए
झरोखों से
दुनिया देखने को मजबूर थीं
लड़कियाँ।
जब तक वो भेड़िये
बाहर मौजूद हैं
उन्हें झरोखों से ही
देखनी होगी
दुनिया।
और वे खुद-ब-खुद
घरों में कैद हो गयीं,
झरोखों से ही
देखने लगीं दुनिया।
अनीता मैठाणी