
कहो तो कह दूंः-2
– बृजेश विजयवर्गीय-

कहा गया है कि वन कृषि की धाय मां है। कृषि क्रांति के अगुवा रहे डाॅ एमएस स्वामीनाथन ने भी इस ओर इंगित किया था। जब भारत कृषि के संकट से गुजर रहा था। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन एफएओ के महानिर्देशक जोस ग्रजिनो ने 18 जुलाई 2016 को ही सतत विकास की एजेंडे में स्पष्ट कर दिया था कि वनीकरण और कृषि के बीच बड़ी दूरी हो गई है। 2023 में जब बढ़ते तापमान से चिंता हो रही है तो सोचना पड़ेगा कि गलती कहां हो गई।
बढ़ता तापमान बुखार का ही मानक है। धरती से उत्पन्न अनाज पर होने वाले दुष्प्रभाव की आशंका से किसान ही नहीं भारत सरकार भी चिंतित है। जो 15 दिन पूर्व तक अनाज निर्यात की योजना बना रही थी। अब गेहूं का दाना नहीं बन रहा तो भी कोई कृषि आधारित अर्थ व्यस्था के बिगड़ने की जांच परख नहीं करना चाहते ऐसा भी नहीं हे। लेकिन जब जब बड़े वैज्ञानिकों की बातों को नजरअंदाज करें तो सवाल तो उठेंगे ही। रात और दिन का तापमान क्योें बराबरी करने लगा है? यह सभी जानकारों को पता होना चाहिए। जब जोशी मठ दरक रहा हो,उत्तराखण्ड के बांध ताश के पत्तों की तरह बह जाऐ ंतो भी नहीं समझ सकें तो इसे तो जानबूझ कर बुखार बढ़ाने वाला कृत्य ही कहा जाएगा कि नहीं। अंधाधुंध विकास के नाम पर वनों का सफाया और पर्यावरण से खिलवाड़ हो रहा है उसी का परिणाम सामने है। इसे हम ग्लोबल कारणों को ध्यान में रखते हुए भी स्थानीय कार्यकलापों से समझ सकते हैं कि हम हमारे आसपास भी वही काम कर रहे है। सुनियोजित विकास हो तो समझ में आता है लेकिन जब अनावश्यक विकास वोटों को भरमाने के लिए हो तो भी धरती का बुखार बढ़ता ही है। सवाल है कि किस “जनहित“ के लिए पर्यावरणीय उपेक्षा हो रही है। जब कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था ही धराशाई हो जाएगी तो मंहगाई तो निश्चित ही बढ़ेगी। हाल ही में देखेते ही देखते आटे का भाव दो गुना हो गया। तापमान बढ़ते ही सब्जियों के तेवर लाल हो गए कि नहीं।तो फिर लोग कैसे स्वस्थ रह सकते है। मैंने ही पिछली पोस्ट में कहा था कि अब सार्वजनिक स्थान सड़कों पार्क आदि में पेड़ पौधे लगाने के हालात नहीं बचे। कृषि वानिकी विषय को कृषि विज्ञान में पढाया जाता है तो समझ सकते हैं कि वन और खेती एक दूसरे के पूरक है। जब हम केवल खेती की बात करते हैं और वनों की उपेक्षा करते है तो प्रकृति की अवहेलना करते है। दूसरा प्रमुख काम जो सीधा सरकारों के जिम्मे है आबादी नियंत्रण इस पर कहीं गंभीरता दिखाई नहीं देती। आर्थिक व सामाजिक कारणों से गांवों से आबादी का शहरों की ओर पलायन बेलगाम है इस पर भी कोई नीति नहीं है। ऐसा नहीं है कि नीति आयोग से विषय अछूता होगा। ये भी सही है कि इस पर कोई स्पष्ट नीति निर्धारण भी नहीं है। इसी के कारण शहरों का विस्तार भी बेलगाम हो रहा है। दिल्ली अब राष्ट्रीय राजधानी क्षैत्र और विधान सभा बन गया। जिसकी सीेमाऐं हरियाणा,पंजाब और राजस्थान में घुस रही है। अरावली पर्वत ही कराहने लगा है। सवाल है कि बढ़ता शहरीकरण विकास का पैमाना है या आबादी विस्फोट का। जहां शहर का विस्तार होता है वहां कृषि और वन भूमि,हरियाली,ताल तलैयाओं,पहाड़ों का नाश होना तय है। अब हम सीधा आते हैं शहरों पर जन सुविधाओं के लालच में ग्रामीणों को शहरों की और पलायन अनवरत होता है। जन सुविधाओं कंेद्र बने शहरों में तो अनावश्यक सीमेंटेशन पेड़ों का दम घांेट रहा है । जमीन कम पड़ रही है। पेड़ों का ही नहीं शहरवासियों का भी। दम घुंट रहा है। यह बात किसी जिम्मेदार अधिकारी के समझ में आती भी हो तो वह कुछ करने की स्थिति मंे नहीं लगता है। आने वाली पीढ़ी चाह की भी पेड़ लगा नहीं सकती इसका पक्का इंतजाम हमारे प्रशासन ने कर दिया है। पर्यावरण विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद भी प्रशासन अनदेखी कर रहा है जो कि गंभीर चिंताजनक है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी इसे अनुचित मान कर सरकारों को निर्देशित किया है,लेकिन न्यायालय की चेतावनियों को भी विकास की चकाचैंध में अनसुना किया जा रहा है।
हमारे कोटा शहर में जहां आईएल की जमीन पर आॅक्सीजोन बनाए जाने के दावे किए जा रहे है उसी शहर में आॅक्सीजन के स्त्रोत पेड़ों को मारने का षडयंत्र भी साथ साथ ही चल रहा है। इस बारे में पर्यावरण संगठनों की ओर से जिला कलेक्टर को ज्ञापन भी दिए गए है । चेतावनियों को नजर अंदाज करना प्रशासन की आदत में आ गया है। अब तो नगर विकास न्यास को प्राधिकरण में बदलने की गूंज सुनाई दे रही है।
नुकसान के बहुआयाम-
सोसायटी फाॅर कंजर्वेशन आॅफ हिस्टोरिकल एंड इंकोलाॅकिल रिसोर्सेज के संचालक वनस्पति शास्त्री डाॅ कृष्णेंद्र सिंह का कहना है कि पेड़ों को सीमेंट इंटरालाॅकिंग, टाईल्सों में दबाने से पेड़ों की वृद्धि रूक जाती है और उनको जमीन से पोषण नहीं मिलता। वर्षा जल जमीन में नहीं जाता जिससे भूमि अनुपजाऊ होने के साथ ही पेड़ पौधे सूख कर मर जाते है। पेड़ मरने से पक्षी भी पालायन कर जाते है। सीमेंटेशन से वातावरण में तापमान बढ़ता है जिससे गर्मी में वृद्धि होने से जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है और बीमारियां पनपती है जो कि आर्थिक चोट भी पहुंचाती है।
पिछले वर्ष शहरों में विभिन्न स्थानों पर सीमेंट कंकरीट में दबे वृक्षों को सीमेंट से मुक्त करने का अभियान शुरू किया गया लेकिन सरकारी स्तर पर तो लगता है कोई सोचते समझने का ही तैयार नहीं है।
विकास कार्याें के नाम पर सीसी सड़कों के किनारे अनावश्यक सीमेंटेशन के कारण पेड़ों का दम घुट गया है। सीसी सड़कों की घटिया गुणवत्ता के कारण घरों में धूल की परतें छाने लगी है जिनसे हर नागरिक परेशान है। नागरिकों की मांग पर तलवंडी में सोमेश्वर महादेव मंदिर के पास से सीमेंट हटाओं पेड़ बचाओ अभियान शुरू किया गया था उसका भी नगर निगम और नगर विकास न्यास पर असर नहीं हुआ अब शायद विकास प्राधिकरण पर हो जाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं अध्यक्ष कोटा एनवायरमेंटल सेनीटेशन सोसायटी, संयोजक चम्बल संसद के साथ ही राष्ट्रीय कौशल विकास निगम,कृषि विवि से क्वालिटी सीड्स ग्रोवर प्रशिक्षित हैं।)
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