
-सुनील कुमार Sunil Kumar
भारत के अधिकतर शहरों में बारिश के मौसम में नदी की बाढ़ के बिना भी अचानक हो जाने वाली भारी-भरकम बारिश से पानी भर जाता है। मुम्बई और दिल्ली सरीखे पुराने महानगरों का भी यही हाल है, और प्रदेशों के शहरों में भी यही नजारा देखने मिलता है। कई जगहों पर कई-कई दिन पानी भरे रहता है, और प्रयागराज के एक पुलिस सबइंस्पेक्टर के कई वीडियो सोशल मीडिया पर खूब चलते रहे जिनमें वह अपने घर के दरवाजे तक पहुंची गंगा की स्तुति करते दिख रहा है, फिर अगले वीडियो में वह घर के भीतर सीने तक पहुंची गंगा की पूजा कर रहा है, घर के बाहर निकलकर चारों तरफ फैली गंगा ही गंगा में तैर रहा है, और बाद के वीडियो में तो वह मकान के दो मंजिल ऊपर चढक़र अपनी बेटियों सहित वहां से पानी में छलांग लगा रहा है, जाहिर है कि पानी कम से कम दस फीट तो रहा ही होगा। लेकिन नदियों से शहरों में होने वाले जलभराव से परे, शहर अपने ही कुकर्मों से डूबते चल रहे हैं, जिस पर सोचने-विचारने की जरूरत है।
शहरों में जमीन की हवस के चलते कुछ दशक पहले तक तो तालाबों को पाट-पाटकर वहां कारोबारी योजनाएं बनाई गईं। हम जिस प्रेस काम्प्लेक्स में बैठकर यह लिख रहे हैं, यह पूरे का पूरा शहर के बीचोंबीच के सबसे बड़े तालाब को पाटकर बनाया गया था, और यहां अखबारों को जमीनें दी गई थीं, कुछ और संगठनों को भी। इसी शहर में एक दूसरा सबसे बड़ा तालाब पाटकर वहां सब्जी बाजार बनाया गया, और ऐसे बहुत से दूसरे तालाब खत्म हुए। नतीजा यह हुआ कि बारिश का पानी जहां जा सकता था, वे तमाम तालाब, नाले बंद होते गए, और पानी के लिए सडक़ें और रिहायशी इलाके ही रह गए। इसके अलावा भी शहरीकरण के कई दूसरे जुर्म भी रहे जिनकी वजह से आज बड़ी-बड़ी बस्तियां कई-कई दिनों तक डूब जाती हैं। बिना सरकारी मंजूरी के अवैध कॉलोनियां बनती हैं, आसपास की जमीन के मुकाबले वे गड्ढे में रहती हैं, और आनन-फानन डूब जाती हैं।
शहरीकरण की एक और दिक्कत के बारे में आज छत्तीसगढ़ के एक जागरूक और सक्रिय पर्यावरण कार्यकर्ता नितिन सिंघवी ने एक मुद्दा उठाया है। उन्होंने सरकार को लगातार चिट्ठियां लिखी हैं कि पिछले 35-40 बरस से सडक़ों पर लगातार एक के बाद एक तह डामर या सीमेंट की चढ़ाई जाती है, और नतीजा यह हुआ है कि कुछ दशक पहले बने हुए मकान जो कि बनते समय सडक़ से कुछ फीट ऊपर थे, वे आज सडक़ से कुछ फीट नीचे हो गए हैं, और बारिश में उनके भीतर पानी भरना तय रहता है। नितिन सिंघवी ने मद्रास हाईकोर्ट के आदेश की कॉपी सहित चिट्ठियां सरकार को लिखी हैं, और बताया है कि जब भी सडक़ों के ऊपर एक सतह और जोड़ी जानी है, पहले सडक़ को छीलना चाहिए, और उसके बाद ही उस पर नई सतह जोडऩी चाहिए। उन्होंने तकनीकी जानकारी राज्य सरकार को दी है कि सडक़ों पर इस तरह की मिलिंग के बिना अगर ऊपर सतह जोड़ी जाती रहेगी, तो ऐसा ही हाल होगा जो कि आज हो रहा है। आज न सिर्फ प्रमुख सडक़ों पर, बल्कि कॉलोनियों के भीतर भी पुराने मकान सडक़ों से नीचे हुए जा रहे हैं, और इनका कोई आसान इलाज भी नहीं है। म्युनिसिपल या जिस दूसरे विभाग को सडक़ बनवानी रहती है, उनसे ठेका मिलते ही निर्माण कंपनी आनन-फानन एक तह और चढ़ा देती है, और भुगतान पा लेती है। इससे धीरे-धीरे शहर के बहुत सारे हिस्सों में बहुत सारे पुराने मकान या दूसरी इमारतों के भूतल डूबना तय होते जा रहा है।
शहरों के हिस्सों को डूबने से बचाने के लिए कतरा-कतरा योजनाएं नहीं बन सकतीं। तालाबों की जगह निर्माण बंद हों, अवैध कॉलोनियां बनना शुरू होते ही उन्हें रोका जाए, सडक़ों की ऊंचाई हर बरस बढऩा रोका जाए, नाली-नालों से निकासी की क्षमता को बढ़ाया जाए क्योंकि शहर के बीच के हिस्सों में पानी की खपत और उसकी निकासी तो बढऩा तय है ही। ऐसी कुछ बुनियादी बातों को समझने और उन पर अमल के लिए किसी रॉकेट-साईंस की जरूरत नहीं है। इसके अलावा हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे कई शहरों को अलग-अलग राज्यों में देख चुके हैं कि वहां पर ठोस कचरे के निपटारे से जनता को नहीं जोड़ा जा रहा है। उसे जिम्मेदार नहीं बनाया जा रहा है। लोग हर किस्म का कचरा, और तोडफ़ोड़ का मलबा नालियों में डाल रहे हैं, और वहां से उसे निकालना और हटाना कई गुना अधिक मुश्किल हो जाता है। देश में साफ शहर होने के बड़े-बड़े राष्ट्रीय सम्मान पाने वाली म्युनिसिपिलों का हाल यह है कि वे सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च करके जनता की जिम्मेदारी खुद निभाते हैं। इससे जनता की आदत और बिगड़ती चलती है, और गरीबों के हक के पैसे, पैसेवालों के पैदा किए हुए कचरे को उठाने, और निपटाने में खर्च होते हैं। अभी हम बात जलभराव की कर रहे हैं, कचरे के निपटारे की नहीं, लेकिन नाली-नालों में पटा हुआ कचरा शहरों में जलभराव के लिए एक बड़ा जिम्मेदार कारण है, इसलिए कचरे को लेकर जागरूकता, और बेहतर इंतजाम के बिना जलभराव थमना नहीं है, बढ़ते ही चले जाना है। फिर यह भी याद रखने की जरूरत है कि मौसम की मनमानी, और उसकी अभूतपूर्व और असाधारण मार अधिक गंभीर होती चल रही है। कभी भी कुछ ही घंटों में इतना अधिक पानी गिर रहा है कि उसकी निकासी किसी भी तरह मुमकिन नहीं है, और ऐसे में ऊंची सडक़ों, भरी हुई नालियों, गायब हो रहे नालों, कांक्रीट से ढकती जा रही खुली जगहों को मिलाकर देखें, तो बारिश-नाली का पानी बहुत बड़ी संख्या में पुरानी बस्तियों, अवैध कॉलोनियों, और नीची हो चुकी इमारतों में भरना ही भरना है।
नितिन सिंघवी ने जो मुद्दा उठाया है, उसमें एक महत्वपूर्ण हिस्सा छीली हुई सडक़ से निकलने वाली सामग्री को दुबारा सडक़ निर्माण में इस्तेमाल करने का भी है। आज हालत यह है कि बिना जरूरत, समस्या और खतरा बढ़ाने वाली सडक़ों की ऊंचाई बढ़ाते हुए नई गिट्टी, नया डामर लग रहा है। दूसरी तरफ सडक़ छीलने से निकले हुए सामान के इस्तेमाल से इसमें भी कमी आ सकती थी। सरकारों और म्युनिसिपलों को जिम्मेदार बनना होगा, वरना हर बारिश में शहर का कुछ अधिक हिस्सा डूबना बढ़ते चले जाएगा, और समंदर से दूर रहने की वजह से, नदियों से दूर रहने की वजह से जिन शहरों को सूखा रहना था, उनमें भी अधिक, और अधिक आबादी घर के भीतर खाट या मेज पर बैठकर कई दिन गुजारेगी। सडक़ निर्माण के लिए दशकों पहले से जो नियम और पैमाने बनाए गए हैं, उन्हें भी न मानकर राज्य सरकार और म्युनिसिपल हर किसी को अधिक खतरे में डाल रहे हैं। इस बारे में एक और जनहित याचिका लेकर हाईकोर्ट गए बिना क्या सरकार खुद होकर जिम्मेदारी दिखा सकती है?
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)