
-देशबन्धु में संपादकीय
सोमवार रात को भी गुरुग्राम की सड़कों पर भारी जाम की तस्वीरें सोशल मीडिया पर छाई रहीं। किसी रिहायशी इमारत की ऊंची मंजिल से लिए गए वीडियो और तस्वीरों में साफ देखा जा सकता है कि सड़कों पर गाड़ियां चल नहीं रही थीं, रेंग रही थी। बताया जा रहा है कि यह जाम करीब 20 किमी लंबा था। अमूमन जो सफ़र आधे घंटे में तय होता था, उसमें लोगों को पांच-छह घंटे लग गए। अपनी-अपनी गाड़ियों में फंसे लोग इस अव्यवस्था पर नाराज़ तो हुए, लेकिन शायद जनता अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि असल में गुस्सा किस पर उतारना है। अगर यह समझ विकसित होती तो जिस शहर में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दफ़्तर हैं, सौ-सौ करोड़ के आलीशान घर हैं, भव्य मॉल्स बने हैं, वहां का रख-रखाव इतना बुरा नहीं होता। गुरुग्राम में बारिश से जाम और सड़कों के नदियों में तब्दील होने की घटना केवल 2025 की नहीं है, बरसों से यही होता आ रहा है। लेकिन अब भी ज़िम्मेदारी लेने की जगह पुरानी सरकारों पर ठीकरा फोड़ा जा रहा है। पिछले 11 सालों से केंद्र और हरियाणा – दोनों जगह भाजपा ही सत्ता में है, लेकिन भाजपा सांसद निशिकांत दुबे कह रहे हैं कि बिना सरकारी प्लानिंग के प्राइवेट बिल्डर्स इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ मिलकर भ्रष्टाचार का शहर बनाएंगे तो गुरुग्राम जैसा शहर ही बनेगा।
बड़ी आसानी से भाजपा सांसद ने कांग्रेस को दोषी बता दिया। लेकिन उनसे पूछा जा सकता है कि अगर गुरुग्राम भ्रष्टाचार की बुनियाद पर बना था, तो उसका नाम गुड़गांव से गुरुग्राम करने से पहले भ्रष्ट तरीकों से बनी इमारतों, सड़कों को बुलडोजर से भाजपा ने ध्वस्त क्यों नहीं कर दिया। 11 सालों में तो कई भ्रष्टाचारियों का पता लगाया जा सकता था, तो किसी को अब तक गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया। जाहिर है भाजपा का कोई इरादा व्यवस्था में सुधार का नहीं है। चूंकि गुरुग्राम या दिल्ली की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में लाना सबसे आसान है, इसलिए गुरुग्राम की बदहाली नजर आ रही है। वर्ना सारे देश का बारिश में यही हाल हो जाता है, क्योंकि शहर प्रबंधन की बारीकियों से ज्यादा दिखावटी सौंदर्यीकरण में सरकार की दिलचस्पी रहती है। इसमें ठेकेदारों को मनचाहे दामों पर काम मिलता रहता है, जनता भी इस मुगालते में पड़ी रहती है कि उसका शहर विश्व स्तरीय बनने वाला है। कहीं सिंगापुर सिटी बनती है, कहीं क्योटो और शंघाई के सपने दिखाए जाते हैं। जबकि ग़रीब तबका तो झुग्गियों में ही रहने को मजबूर है, उसने न दुनिया के शहर देखे, न वो जानता है कि गरिमामय जीवन की असल परिभाषा क्या है। लेकिन जिन लोगों ने विदेशों की सैर की है, वे भी यह समझ नहीं पा रहे कि वहां अधोसंरचना तैयार करने का जिम्मा विशेषज्ञों के पास रहता है, उन पर राजनैतिक दबाव नहीं रहता। भारतीय नेता सत्ता में आने के बाद विकास के अध्ययन के लिए विदेशों की सैर तो कर आते हैं, लेकिन उसका हासिल क्या होता है, यह किसी रिपोर्ट कार्ड में दर्ज नहीं होता। जब चुनाव आते हैं तो बिजली, सड़क, पानी के वादे घोषणापत्र का हिस्सा बन जाते हैं, लेकिन उस समय भी न जनता पिछला हिसाब मांगती है, न सत्ताधारी दल ये बताते हैं कि क्यों दो-तीन दिन की बारिश भी हमारे शहर-कस्बे झेल नहीं पा रहे हैं।
गुरुग्राम-दिल्ली में इमारतें, सड़कें डूब रही हैं, तो उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब में खेत-खलिहान, मवेशी, घर डूब रहे हैं। बाढ़ और भूस्खलन के लिए जलवायु परिवर्तन को दोष देना अब सबसे आसान बहाना हो गया है। लेकिन ऐसे बहानों की आड़ में छिपने वाले यह भूल रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल भारत के लिए नहीं है, दुनिया भर के लिए है। दरअसल पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन और नदियों में उफान की सबसे बड़ी वजह यही है कि बिना सोचे-समझे यहां निर्माण कार्य हुआ है। अंग्रेजों ने भी भारत में पहाड़ों पर निर्माण किए, लेकिन उससे पहले उन्होंने परखा था कि कौन से पहाड़ मजबूत हैं, कौन से नहीं। यही वजह है कि हिमाचल रेलवे, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एंडवास्ड स्टडीज़, देहरादून, रानीखेत आदि में अंग्रेजों की बनाई सड़कें सौ साल बाद अब भी सलामत हैं। जबकि कुछ साल पहले बनी इमारतें, सड़कें, पुल सब गिर रहे हैं।
अभी उत्तराखंड में भारी बारिश के कारण देहरादून, टिहरी, पौड़ी गढ़वाल, बागेश्वर, चंपावत, नैनीताल, उधम सिंह नगर और हरिद्वार जिलों में रेड अलर्ट जारी है। लेकिन आम जनजीवन लंबे वक्त से प्रभावित चल रहा है। उत्तरकाशी के कूपड़ा गांव से 12 किलोमीटर दूर राजकीय इंटर कॉलेज राणाचट्टी में 13 गांवों के छात्र पढ़ते हैं। लेकिन पिछले दो महीने से बच्चे स्कूल नहीं आ पा रहे, क्योंकि सड़कें बह चुकी है। दसवीं और बारहवीं की प्री-बोर्ड परीक्षाएं फरवरी में और बोर्ड परीक्षाएं मार्च में होनी हैं। ऐसे में यहां पढ़ने वाले बच्चे किस तरह पाठ्यक्रम पूरा करेंगे और परीक्षा के लिए तैयार रहेंगे, इसका कुछ पता नहीं है। बच्चे किस मानसिक संताप से गुजर रहे होंगे, इसका अंदाजा सरकार को नहीं होगा।
इधर पंजाब में भी हालात बिगड़ रहे हैं। राज्य के आठ जिलों के सैकड़ों गांव जलमग्न हो गए हैं और कम से कम 24 लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें से ज्यादातर इमारतें गिरने की वजह से हुई हैं। भाखड़ा और रंजीत सागर जैसे बांधों से पानी छोड़े जाने के कारण सतलुज, व्यास और रावी नदियां उफान पर आ गई हैं। किसानों की फसलें डूब गई हैं, खासकर आलू की फ़सल काटने का यही वक़्त है, लेकिन खेतों में पानी भरा है। अब जब पानी उतरेगा, तो कितना नुकसान हुआ है, इसका आकलन हो सकेगा। लोगों के घरों में पानी भर गया है तो वे छतों पर रह रहे हैं और अपने साथ मवेशियों को भी रख रहे हैं, ताकि उन्हें कोई चुरा न ले। बारिश की आपदा में चोरी का अवसर तलाशने वाले बढ़ गए हैं। किसान मजदूर संघर्ष समिति के अध्यक्ष सरवन सिंह पंढेर ने ट्रैक्टर पर बाढ़ प्रभावित गांवों का दौरा किया। उन्होंने कहा, ‘पॉलीथीन शीट की कीमत 130 रुपये प्रति किलो से बढ़कर 170-200 रुपये प्रति किलो हो गई है। बोतलबंद पानी दोगुने दाम पर बिक रहा है।’ ज़ाहिर है कि कुछ लोग आपदा में अवसर ढूंढने से बाज़ नहीं आ रहे हैं।
अच्छी बारिश किसानों के लिए वरदान बन सकती है, अगर इस वर्षाजल को धरती के नीचे सहेजा जा सके तो गर्मियों में देश का बड़ा हिस्सा पानी के संकट से बचाया जा सकता है। लेकिन यह तभी होगा जब सरकारों और प्रशासन का नज़रिया आम जनता, ख़ास तौर से गरीबों के हितों की रक्षा करने वाला रहे। फ़िलहाल तो सब अपने हित ही साध रहे हैं।