बिहार ने दिखाया – जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं

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फोटो सोशल मीडिया

-देशबन्धु में संपादकीय 

जब सड़कें सूनी हों तो संसद आवारा हो जाती है, राममनोहर लोहिया की ये बात इस समय बिहार के हालात में बार-बार उठ रही है। बुधवार, 9 जुलाई को बिहार की सड़कों पर जनसैलाब उमड़ा था और इससे संकेत मिले कि अब संसद को न आवारा रहने दिया जायेगा, न बेलगाम। लोहिया जी ने ये भी कहा था कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती। इस बात के गहरे मायने हैं, जो लोकतंत्र में लोगों को न केवल उनके अधिकारों और कर्तव्यों की याद दिलाते हैं, बल्कि ये भी समझाते हैं कि एक बार वोट डालने से ही लोगों की लोकतंत्र के प्रति ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो जातीं, उन्हें उन लोगों पर लगातार नज़र भी रखनी पड़ती है जिन्हें लोकतंत्र में शासन की बागडोर सौंपी गई है। अगर सत्ता पर बैठे लोग अपने कर्तव्यपथ से विचलित दिखें तो फिर जनता को अपने ज़िंदा होने का सबूत देने के लिए आगे आना चाहिए। वर्ना लोकतंत्र का जनाजा निकलने में देर नहीं लगेगी। बिहार में बुधवार को लोगों ने अपने ज़िंदा होने का ही सबूत दिया और विपक्ष ने बड़े सलीके से उनका नेतृत्व किया।

यह अद्भुत दृश्य था कि बिहार चुनाव से पहले लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव एक साथ सड़क पर उतरे और ऐलान किया कि इस बार लोकतंत्र को कुचलने और चुनाव में चोरी के मौके देने की लापरवाही नहीं बरती जायेगी। गौरतलब है कि अभी बिहार में चुनाव की तारीखें घोषित नहीं हुई हैं, न ही विपक्षी गठबंधन के बीच सीटों का बंटवारा हुआ है। हालांकि राहुल गांधी जनवरी से लगातार बिहार के अलग-अलग हिस्सों में दौरे कर रहे हैं, लेकिन ये पहली बार है कि राहुल गांधी किसी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा बनने बिहार पहुंचे।

पिछले महीने जून की शुरुआत में ही राहुल गांधी का एक लेख देश भर के अखबारों में छपा था, जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र में चुनाव की चोरी कैसे हुई, इस पर अपने विचार रखे थे और बिहार को लेकर आगाह किया था। अब बिहार में राहुल गांधी ने फिर उसी बात को दोहराया है। बुधवार के चक्काजाम में राहुल गांधी ने कहा कि महाराष्ट्र, हरियाणा चुनाव में वोट की लूट हुई। चुनाव में गरीब और दलित के वोट काटे गये। जब हमने चुनाव आयोग से कहा कि आप हमें वोटर लिस्ट दीजिये, वीडियोग्राफ़ी दीजिये, तो चुनाव आयोग ने इस पर एक शब्द नहीं कहा। हमें आज तक महाराष्ट्र की वोटर लिस्ट नहीं मिली और वीडियोग्राफ़ी का कानून बदल दिया गया। ये सब इसलिए किया गया, क्योंकि ये सच्चाई छिपाना चाहते हैं। हम बिहार आये हैं, यहां लोग संविधान के लिए शहीद हुए हैं। हमारे संविधान में लिखा है कि हिंदुस्तान के हर नागरिक को वोट देने का अधिकार है। मैं हिंदुस्तान और बिहार की जनता को बताना चाहता हूं कि जैसे महाराष्ट्र का चुनाव चोरी किया गया था, उसी तरह बिहार का चुनाव भी चोरी करने की कोशिश की जा रही है। उन्हें पता चल गया है कि हमें महाराष्ट्र मॉडल समझ आ गया है, इसलिए अब वे बिहार मॉडल लेकर आए हैं। मैं आपको साफ़ बताना चाहता हूं कि यह ग़रीबों का वोट छीनने का तरीका है, लेकिन इनको पता नहीं है कि ये बिहार है और बिहार की जनता ऐसा कभी नहीं होने देगी।

पाठक जानते हैं कि बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर चुनाव आयोग मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण अभियान चला रहा है, जिसका विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं। इंडिया गठबंधन ने आरोप लगाया है कि निर्वाचन आयोग जिन 11 दस्तावेज की मांग कर रहा है, वे दस्तावेज राज्य के गरीब तबकों के पास अमूमन नहीं हैं और आशंका है कि इन्हें उपलब्ध न कराने पर करोड़ों नाम मतदाता सूची से हटाए जा सकते हैं। यह कवायद संविधान विरोधी कही जा रही है, क्योंकि भारत का संविधान जाति, धर्म, संपत्ति, लिंग इन सबके भेदभाव से परे हरेक नागरिक को मत का अधिकार देता है। नागरिकों के मताधिकार की रक्षा हो, देश में निष्पक्ष चुनाव हों, इन्हीं उद्देश्यों के साथ ही निर्वाचन आयोग का गठन किया गया था। यह आयोग की जिम्मेदारी थी और अब भी है कि वह खुद नागरिकों तक पहुंचकर उन्हें मताधिकार दे, लेकिन बिहार में चुनाव आयोग की मौजूदा कवायद तो लोगों को खुद को नागरिक साबित करने की चुनौती में उलझा रही है। जो अपने आप को नागरिक साबित नहीं कर पाएंगे, उन्हें मतदाता सूची से बाहर कर दिया जायेगा।

हालांकि अब राहुल गांधी ने चुनाव आयोग को आगाह कर दिया है कि वह कानून से परे नहीं है और न ही वह बीजेपी का काम करने के लिए है। चुनाव आयोग का काम संविधान की रक्षा करने का है, लेकिन ये अपना काम नहीं कर रहे हैं, ये आरोप राहुल गांधी ने लगाया है। राजनैतिक दलों का चुनाव आयोग से भरोसा उठे, यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है। मगर पिछले 11 सालों के चुनावों के तौर-तरीकों को देखा जाये, तो लगभग हर चुनाव से पहले या बाद में चुनाव आयोग के खिलाफ शिकायतें हो रही हैं, अदालतों के दरवाजे खटखटाये जा रहे हैं। मुख्य चुनाव आयुक्तों के बयानों पर सवाल उठ रहे हैं या विवाद खड़े हो रहे हैं। इससे पहले देश का ध्यान इस बात पर नहीं जाता था कि कब चुनाव आयोग प्रेस काॅन्फ्रेंस कर रहा है, कब नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति हो रही है या किसी चुनाव में कब कौन सी बड़ी गड़बड़ी हुई है। लेकिन मोदी सरकार के सत्ता में आते ही ये सारी बातें लगातार सुर्खियां बटोर रही हैं। कभी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं, कभी चुनाव आयोग के नियमों में संशोधन पर आपत्ति होती है, कभी विपक्ष शिकायत करता है कि आयोग उसे मिलने का वक़्त नहीं देता, उसके सवालों का सही जवाब नहीं देता, कभी चुनाव आयोग विपक्ष पर तंज कसते हुए जवाब देता है, मानो वह निष्पक्ष संस्था नहीं सत्तारुढ़ दल का साथी है। ये सारे लक्षण लोकतंत्र की मजबूती के तो कतई नहीं हैं। कायदे से इन पर चिंता दिखाते हुए इन्हें सुधारने की कोशिश होनी चाहिए थी, लेकिन अब नौबत ऐसी आ गई है कि एक तरफ़ विपक्ष को चुनाव आयोग के खिलाफ अदालत जाना पड़ा है, तो दूसरी तरफ सड़क पर उतरना पड़ा है।

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