
-सुनील कुमार Sunil Kumar
संयुक्त राष्ट्र की नई जनसंख्या रिपोर्ट भारत के बारे में यह दिलचस्प जानकारी दे रही है कि राष्ट्रीय औसत के मुताबिक प्रति महिला अब उसके जीवनकाल में दो बच्चे भी पैदा नहीं कर रही है। यह संख्या 1.9 पर पहुंच गई है, और देश के लोगों का यह कहना है कि अब पैसों की कमी की वजह से वे अधिक बच्चे पैदा नहीं कर सकते। बहुत से लोगों को बच्चों के इलाज और उनके पालन-पोषण के इंतजाम पर भरोसा नहीं है, और कुछ लोग अपनी खुद की सेहत ठीक नहीं रहने से भी अधिक बच्चे पैदा नहीं कर पा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक 1970 में हर भारतीय महिला के औसतन पांच बच्चे होते थे, लेकिन अब यह संख्या दो के नीचे तक आ गई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में उत्तर और दक्षिण का एक फर्क बड़ा साफ है कि केरल और तमिलनाडु में आबादी बहुत कम बढ़ रही है, लेकिन बिहार, झारखंड, और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में इसकी रफ्तार अब भी अधिक है। इस रिपोर्ट में और बहुत से आंकड़े हैं, लेकिन आज हम आंकड़ों पर अधिक चर्चा करने के बजाय कुछ मुद्दों पर चर्चा करना चाहते हैं।
अब इसे देश की आबादी और आर्थिक स्थिति के हिसाब से देखें, तो भारत की सबसे रईस एक फीसदी आबादी के हाथ देश की 40 फीसदी संपत्ति है। दूसरी तरफ आबादी में सबसे नीचे के 50 फीसदी लोगों के पास कुल मिलाकर 3 फीसदी ही संपत्ति है। अडानी और अंबानी जैसे खरबपतियों की संपत्ति लगातार बढ़ रही है, और सबसे गरीब आबादी की हालत खराब है। नतीजा यह है कि सबसे गरीब आबादी अपने बच्चों की संख्या बढ़ाने के चक्कर में अब नहीं पड़ रही है, क्योंकि उसके पास न उन्हें सुलाने की जगह है, न खिलाने को खाना है, न इलाज को अस्पताल है, और न ही पढ़ाने की ताकत है। ऐसी नौबत में देश की प्रति महिला 1.9 बच्चों तक आ चुकी प्रजनन संख्या फिक्र इसलिए करती है कि आबादी को स्थिर रखने के लिए 2.1 की प्रजनन संख्या रहनी चाहिए, और भारत उसके नीचे आ गया है। अभी आने वाले कई बरस भारत की आबादी दुनिया में सबसे अधिक रहेगी, और कुछ दशकों में भारत की आबादी कम होना भी शुरू हो सकती है जो कि एक फिक्र की वजह रहेगी।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में उसकी आबादी बोझ भी बन सकती है, और कमाऊ संतान भी। यह तो देश की सरकारों पर निर्भर करता है कि वे अपने लोगों को किस काबिल तैयार करती हैं। आज चीन में प्रति कामगार देश की सरकार को अच्छी-खासी कमाई होती है, और वहां की सरकार अपनी आबादी बढ़ाने के लिए लोगों को तरह-तरह के प्रोत्साहन दे रही है। लेकिन आबादी है कि उसे चीन की प्रति परिवार एक ही संतान की दशकों से चली आ रही नीति की वजह से अब और बच्चे पैदा करना पसंद नहीं रह गया है, और सरकार की कोशिशें नाकाम होती जा रही हैं। किसी देश की सरकारों की सफलता इसी पर रहती है कि वे अपनी आबादी को कितना उत्पादक बना सकती हैं। आज भारत की आबादी खाड़ी के देशों में जाकर मजदूरी कर सकती है, या फिर वह अमरीका में जाकर सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर का काम करती है। इसी तरह देश के भीतर आज मजदूरी इतनी सस्ती है कि दुनिया के बहुत सारे विकसित देश प्रदूषण और मजदूरी वाले कई किस्म के काम भारत में करवाते हैं। भारत में लोगों को यह लगता है कि उनके पास काम है, और सरकार भी किसी भी तरह के कामगार को बेरोजगारी के आंकड़ों से बाहर रखती है, लेकिन ये काम इतनी कम आर्थिक उत्पादकता के रहते हैं कि इनकी तुलना चीन के कारखाना-कामगारों से नहीं की जा सकती। दूसरी तरफ ताइवान जैसे छोटे से देश में माइक्रोचिप और सेमीकंडक्टर का काम इतने बड़े पैमाने पर होता है, और उस पर उसका एकाधिकार सरीखा है, तो वहां वैसे उद्योग में लगे हुए लोगों की मजदूरी या कमाई भारत के औसत कामगार से सैकड़ों गुना अधिक हो सकती है।
हम आबादी के आंकड़ों के साथ-साथ जब यह देख रहे हैं कि अधिक बच्चे पैदा करने से लोगों के कतराने की सबसे बड़ी वजह आर्थिक है, तो देश की अर्थव्यवस्था, और आबादी के सबसे बड़े हिस्से की आर्थिक क्षमता के बारे में सोचे बिना भविष्य के कामगारों की कल्पना नहीं की जा सकती। किसी देश की जनसंख्या के बढऩे या घटने का सिलसिला कारखाने में उत्पादन बढऩे या घटने की तरह नहीं हो सकता। जब लोगों को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से बच्चों से परहेज होने लगता है, जब आर्थिक स्थितियां एक से अधिक बच्चे की इजाजत नहीं देतीं, तो परिवार नियोजन की ऐसी स्थिति लोगों की कई पीढिय़ों तक असर छोड़ती है, न तो तेजी से आबादी बढ़ सकती, और न ही तेजी से घट सकती है। भारत के मामले में एक बात बिल्कुल साफ है कि जिन राज्यों में साक्षरता और पढ़ाई-लिखाई में बढ़ोत्तरी हुई है, उन राज्यों में आबादी काबू में आई है। आबादी काबू में आने से कम बच्चों की बेहतर परवरिश हो पाई है, और वे अगली पीढ़ी में अधिक उत्पादक भी हो पाए हैं। इसीलिए केरल और तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक, तेलंगाना जैसे राज्यों से निकलकर लोग दुनिया भर में काम करने जाते हैं, और वहां से जो पैसा घर भेजते हैं, उससे देश की आर्थिक स्थिति पर भी फर्क पड़ता है। दूसरी तरफ यूपी-बिहार सरीखे बड़े हिन्दीभाषी राज्य साक्षरता और पढ़ाई में पिछड़े रहे, रोजगार और कामकाज में पिछड़े रहे, दूसरे देशों तक जाने में पीछे रहे, और घर कमाई भेजने की नौबत बहुत कम रही। आज भी उत्तर और दक्षिण के बीच आबादी बढऩे का फर्क खासा बड़ा है। हम अभी आंकड़ों में अधिक उलझना नहीं चाहते, लेकिन एक भयानक आंकड़ा अभी और सामने आया कि बिहार के दर्जन भर से अधिक जिलों में लडक़ों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात हजार लडक़ों पर नौ सौ से कम लड़कियों का रह गया है। जाहिर है कि यह नौबत अगर और आगे बढ़ती है, तो यह भी कुछ दशकों में जनसंख्या को एक अलग तरीके से प्रभावित कर सकती है।
आखिर में हम यही कहेंगे कि जनसंख्या की बढ़ोत्तरी या उसके घटने को देश के सबसे कमजोर तबके के लोगों की आर्थिक प्रगति से जोडक़र देखना होगा। किसी देश में बेरोजगारों की फौज खड़ा करना सरकार पर भारी पड़ सकता है, और चीन जैसे देश में कामगारों की फौज खड़ा करने की कोशिश में वहां की सरकार डूबी हुई है। भारत में देश और प्रदेश की सरकारें इस देश की नौबत को कितना सुधार सकती हैं, उसी पर यह निर्भर करेगा कि यहां की आबादी बोझ है, या संपत्ति।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)