
#सर्वमित्रा_सुरजन
बीते चार-पांच दिनों में अलग-अलग प्रांतों की स्कूलों में हत्या या हत्या की कोशिश के तीन मामले सामने आए हैं। संयोग है कि तीनों ही मामले भाजपा शासित राज्यों के हैं। गुजरात में आठवीं कक्षा के एक बच्चे ने दसवीं में पढ़ने वाले छात्र की चाकू मारकर हत्या कर दी, वह भी स्कूल परिसर में ही। आरोपी बच्चे की अपने एक दोस्त से सोशल मीडिया प्लेटफार्म इंस्टाग्राम पर हुई बातचीत भी अब सामने आई है, जिसमें दोस्त पूछ रहा है कि आज स्कूल में जो हुआ वो सच है क्या और आरोपी छात्र कह रहा है कि हां। मृतक बच्चे से आरोपी की क्या रंजिश थी, इसका खुलासा अभी नहीं हुआ है, लेकिन चैट के अनुसार मृतक बच्चे ने आरोपी से कहा था तू कौन है, क्या कर लेगा। इस चैट से यही समझ आता है कि आरोपी बच्चे ने केवल यह बताने के लिए चाकू मार दिया क्योंकि उसके अहं को चुनौती दी गई थी। इस बड़ी घटना के बाद अभिभावकों का परेशान और नाराज होना स्वाभाविक था। अहमदाबाद के एक निजी स्कूल में हुई इस वारदात के बाद अभिभावकों ने विरोध प्रदर्शन तो किया ही, कुछ हिंदूवादी संगठन भी इसमें शामिल हो गए और तोड़फोड़ को अंजाम दिया। मृत छात्र के शव को सड़क पर रखकर चक्का जाम की कोशिश भी की गई। क्योंकि खबरों के मुताबिक आरोपी छात्र अल्पसंख्यक समुदाय से है। कई अखबारों और चैनलों में इसी तरह खबर दिखाई गई है। इससे समझ आता है कि अपने नौनिहालों को मौत के मुंह में धकेल कर भी समाज होश में नहीं आ रहा है।
दूसरी घटना उत्तरप्रदेश की है, यहां गाजीपुर के एक स्कूल में छात्रों के दो गुटों के बीच किसी बात पर झगड़ा हुआ, जिसमें 10वीं कक्षा के छात्र को चाकू मारकर उसकी जान ले ली गई। वहीं दो अन्य छात्र घायल हुए हैं। पुलिस के मुताबिक 14 तारीख को छात्रों का किसी बात पर विवाद हुआ था, फिर 15 और 16 को अवकाश था, लेकिन 17 तारीख को जब स्कूल खुला तो दोनों गुटों के बीच मारपीट हुई, जिसमें एक छात्र की जान ले ली गई।
तीसरी घटना उत्तराखंड की है, इसमें नवमी कक्षा के छात्र ने अपने शिक्षक पर ही गोली चला दी। आरोपी छात्र तमंचे को लंच बॉक्स में छिपा कर लाया था। जब उसके शिक्षक पढ़ा रहे थे, तो उसने कहा सर इधर सुनिए और जैसे ही शिक्षक मुड़े, उसने गोली चला दी। फिलहाल शिक्षक का इलाज अस्पताल में चल रहा है। बताया जा रहा है कि शिक्षक ने कुछ दिन पहले सही जवाब देने के बावजूद छात्र को थप्पड़ मार दिया था, जिस वजह से वह बदला लेना चाहता था।
इन तीनों घटनाओं के कारण भले अलग हैं, लेकिन इनकी हिंसक प्रवृत्ति समाज के लिए ऐसा अलार्म है, जिसे अब नहीं सुना गया तो फिर बहुत देर हो जाएगी। बल्कि ऐसा लग रहा है कि देर हो चुकी है और हम अब भी नहीं जाग रहे हैं। शायद उदय प्रकाश जी की लिखी एक पंक्ति है कि- चैन से सोना है, तो जाग जाओ। अब वाकई जागने का वक्त आ गया है। हिंसा मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति है, लेकिन सभ्य समाज में संयम और नियम से रहकर मनुष्य अपनी इस प्रवृत्ति को वश में रखता है। सरकारें कानून बनाती हैं, अदालतें उन कानूनों के उल्लंघन पर सजा देती हैं, लेकिन इनके बीच कानून का पालन तो समाज की ही जिम्मेदारी है। ऐसा नहीं है कि बच्चों में मारपीट या विवाद पहले नहीं हुआ करते थे। बच्चे तो हमेशा से ही लड़ते-झगड़ते और फिर मिलकर साथ रहना जानते हैं। किशोरावस्था आते-आते जो मानसिक, शारीरिक परिवर्तन होते हैं, उस वजह से उनके आचरण में तब्दीलियां आती हैं। ऊर्जा अपने चरम पर होती है और उसे सही दिशा नहीं मिलती तो वह गलत तरीकों की तरफ मुड़ जाती है। इसलिए स्कूलों में अनुशासन पर जोर दिया जाता है और घर पर भी मां-बाप या अन्य बड़े व अनुभवी लोगों के मार्गदर्शन व दोस्ताना व्यवहार की जरूरत 14-15 साल के बच्चों को होती है।
लेकिन बीते कुछ दशकों में जीवनशैली में बहुत बदलाव आ गए हैं। अब घरों पर आपसी चर्चा का वक्त अमूमन कम हो गया है और उनकी जगह टीवी या स्मार्टफोन्स ने ले ली है। सब अपने अपने में व्यस्त रहने लगे हैं, ऐसे में अगर बच्चे के व्यवहार में कोई परिवर्तन होता भी है तो उस पर ध्यान नहीं दिया जाता। जरूरतों और महंगाई के बढ़ने के कारण अक्सर मां-बाप दोनों काम पर होते हैं, ऐसे में बच्चों का अकेलापन और बढ़ जाता है। ये तो सामान्य सामाजिक समस्याएं हैं ही, जिन पर अनेक बार विमर्श होते हैं। लेकिन इनके साथ अब जिस तरह के टीवी कार्यक्रमों को बच्चे आसानी से देख रहे हैं या सोशल मीडिया की सामग्री उनकी मानसिक अवस्था पर जो असर डाल रही है, उस पर भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
एक वक्त था जब इस बात पर भी समाज में चिंता जतलाई जाती थी कि नकली बंदूकें बच्चों को खेलने के लिए क्यों दी जानी चाहिए। क्योंकि वे बच्चे में हिंसा की प्रवृत्ति को उकसाती हैं। अब बाजार के दबाव में ऐसे विमर्श बंद हो गए हैं। नकली बंदूकों से आगे बढ़ कर अब कई मोबाइल और वीडियो गेम्स ऐसे आ चुके हैं जिनमें दुश्मन को मार कर आगे बढ़ना होता है। ओटीटी पर जो धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं, उनमें शारीरिक और शाब्दिक दोनों तरह की हिंसा भरी पड़ी होती है और कोई सेंसरशिप उस पर काम नहीं करती। केवल डिस्क्लेमर डालकर बच्चों को ऐसे कार्यक्रम देखने से रोका नहीं जा सकता। इन कार्यक्रमों और रियलटी शोज़ के पक्ष में कई बार तर्क दिए जाते हैं कि जो कुछ समाज में हो रहा है, वही दिखा रहे हैं। यानी यहां भी जिम्मेदारी समाज पर डाल दी गई है। हालांकि व्यापक समाज में हिंसा पर या दिग्भ्रमित हो रही युवा पीढ़ी को फिक्र कम ही दिख रही है। अगर फिक्र होती तो अपने बच्चों को पढ़ने या अन्य रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जाता। लेकिन समाज बड़ी आसानी से बच्चों को राजनैतिक दलों के हाथों में खिलौने की तरह इस्तेमाल होने दे रहा है। कांवड़ यात्रा, राजनैतिक रैलियां हो या अन्य धार्मिक जुलूस, सारे नियमों को ताक पर रखकर हुड़दंग मचाने की अनुमति इन बच्चों को मिल जाती है।
बदले में उन्हें भोजन, पैसे या कुछ और सुविधाएं मिलती हैं। मां-बाप लाचार से बच्चों को गलत दिशा में जाते देखते हैं फिर भी कुछ नहीं करते। लेकिन अब भी अगर कुछ नहीं किया तो सही गलत में फर्क न कर पाने की अबोध अवस्था में बच्चे कब छात्र से आरोपी कहलाने लगेंगे, पता भी नहीं चलेगा।
(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

















