वैज्ञानिक चेतना के शून्य को बढ़ा गया डा. जयंत नार्लीकर का निधन

#सर्वमित्रा_सुरजन

मशहूर खगोल भौतिक विज्ञानी डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर का निधन हो गया। डॉ. नार्लीकर 87 साल के थे। 19 मई की रात नींद में ही उनका निधन हो गया, हाल ही में उनका एक ऑपरेशन भी हुआ था। डा. जयंत नार्लीकर के निधन को बहुत से अखबारों और चैनलों ने विज्ञान जगत की अपूरणीय क्षति बताया, लिखा कि उनके न रहने से विज्ञान की दुनिया में शोक की लहर चल पड़ी है। निस्संदेह एक अनुभवी, वरिष्ठ और बेहद अनूठे वैज्ञानिक के जाने से विज्ञान जगत में तो शून्य बन ही गया है, लेकिन असल में यह समूचे भारत के लिए शोक की घड़ी है। क्योंकि डा. नार्लीकर ऐसे कठिन समय में इस दुनिया को छोड़ कर गए हैं, जब विज्ञान और आस्था के नाम पर एक घातक मिलावट करने का सिलसिला चल निकला है। इस मिलावट को फैलाने वाले सत्ता से लेकर प्रशासन, शिक्षा, न्यायपालिका के गलियारों में फैले हुए हैं। यहां तक कि वैज्ञानिक संस्थाएं भी इसकी चपेट में आ रही है। जो भारत अपनी तर्क संस्कृति, वाद-विवाद-संवाद के लिए पूरी दुनिया में मशहूर था, वहां अब कुतर्कों की भरमार हो गई है, संवाद पूरी तरह से खत्म हो चले हैं। नयी पीढ़ी को ज्ञान-विज्ञान की चेतना विकसित करने का अवसर दिए जाने की जगह धार्मिक जुलूसों में भेड़ों की तरह हांका जा रहा है, उन्हें उन्मादी बनाया जा रहा है। धर्म के नाम पर झगड़े करवाने हों तो युवाओं की शक्ति, ऊर्जा और जोश ही सबसे अधिक काम आते हैं, इसलिए राजनैतिक दल उनका इसी हिसाब से उपयोग कर रहे हैं और ऐसे वक्त में जो तार्किक बातें करे उसे देशद्रोही कहना न्यू नॉर्मल बन गया है।
धार्मिक स्थलों पर युवाओं की भीड़ है, ओटीटी प्लेटफार्म्स बेहूदी भाषा और अनावश्यक खुलेपन वाले रियलटी शो परोस रहे हैं, जिसमें प्रतिभागी और दर्शक युवा ही हैं, आईपीएल जैसे आयोजन खेलों का व्यापार कर रहे हैं, यहां भी युवा ही सबसे अधिक निशाने पर है। शिक्षा के नाम पर कोचिंग संस्थाओं का व्यापार चल रहा है और 10वीं के बाद विज्ञान विषय लेकर पढ़ने वाले छात्रों का एकमात्र ध्येय किसी भी तरह इंजीनियरिंग या मेडिकल में दाखिला लेना होता है। सरकारी संस्थानों में सीटें बेहद कम हैं और निजी संस्थाओं की लूट का कोई ठिकाना नहीं है। इन हालात में शोध और अनुसंधान के लिए गुंजाइश बेहद कम हो चली है। उसमें भी छात्र होनहार हो और उसके साथ सवर्ण हो तो आगे का रास्ता आसान होता है, वर्ना रोहित वेमुला जैसे उदाहरण हमारे सामने हैं। इतनी विडंबनाओं के जख्म पर सत्ता नमक तब छिड़कती है, जब देश के शहरों को चीन या जापान जैसा सुंदर बनाने का वादा जनता से होता है। लोगों को साफ पानी और हवा तो अब मयस्सर नहीं है और ऐसे में ख्वाब शंघाई-टोक्यो के दिखाए जाते हैं। जबकि इन देशों ने विज्ञान और तकनीकी में इतनी तरक्की कर ली है, जिसकी बराबरी करना फिलहाल संभव नहीं है।
इस निराशाजनक माहौल को सुधारा जा सकता है, बशर्ते हमारे बीच जयंत विष्णु नार्लीकर जैसे वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक और लेखक हों। एक वक्त में डॉ. नार्लीकर के अंग्रेजी लेखों के हिन्दी अनुवाद देशबन्धु में प्रकाशित होते थे। डा. नार्लीकर बेहद सरल भाषा में खगोल विज्ञान और जटिल वैज्ञानिक जानकारी को समझाते थे। किसी कठिन कार्य के लिए प्रचलित मुहावरा है कि यह कोई रॉकेट साइंस नहीं है, लेकिन देखा जाए तो डा. नार्लीकर ने रॉकेट साइंस को ही आसान बनाकर लोगों तक पहुंचाया था। जब आकाशवाणी और दूरदर्शन में उत्कृष्टता पर आधारित कार्यक्रम प्रसारित किए जाते थे, उस दौर में डा. नार्लीकर ने विज्ञान के तथ्यों को बहुत सरल और रोचक अंदाज में पेश किया। दूरदर्शन पर प्रसारित ब्रह्मांड नामक शो के माध्यम से नार्लीकर ने बच्चों को रॉकेट और अंतरिक्ष विज्ञान की विभिन्न घटनाओं के बारे में बताया। 80 और 90 के दशक के बच्चे अगर चांद और मंगल को लेकर उत्सुक हुए, विज्ञान में उनकी रूचि जगी या वैज्ञानिक बनने के बारे में वे सोच पाए तो इसका बड़ा श्रेय जयंत नार्लीकर को भी जाता है। जिनकी किताबों और व्याख्यानों को विज्ञान को बोझिल विषय से रोचक विषय बना दिया।
वैसे तो साहित्य और विज्ञान अलग-अलग क्षेत्र माने जाते हैं। विज्ञान कथाएं लिखने वाले लोग भारतीय भाषा के साहित्य में अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। जयंत विष्णु नार्लीकर उन्हीं में से एक थे। डॉ. नार्लीकर की कई कहानियां लोकप्रिय हुईं। ‘अंतरिक्ष में विस्फोट’ और ‘वायरस’ नाम के दो उपन्यास उन्होंने मराठी में लिखे। अंतरिक्ष में विस्फोट में अतीत में अंतरिक्ष में घटी घटना, वर्तमान और भविष्य में धरती को बचाने का रोचक वर्णन है। इसी तररह वायरस में अंतरिक्ष के दूसरे ग्रहों से पृथ्वी के कंप्यूटर्स को खराब करने की कोशिश और वैज्ञानिकों द्वारा उसे बचाने का रोचक कथानक है। एनसीईआरटी ने 11वीं के पाठ्यक्रम में द एडवेंचर’ नाम की कहानी रखी थी। डा. नार्लीकर की इस कहानी में प्रोफेसर गंगाधरपंत गायतोंडे की समय-यात्रा को बताया गया है, जिसमें वे अतीत में जाते हैं और खुद को ऐसे मुंबई शहर में पाते हैं, जो मौजूदा मुंबई से काफी अलग है। द एडवेंचर जैसे ही विषय पर हॉलीवुड में बैक टू द फ्यूचर जैसी फिल्म भी बनी है।
डा.नार्लीकर की विज्ञान कथाएं कोरी फंतासी नहीं होती, बल्कि उनमें विज्ञान की परतों को तथ्यों के साथ खोलने की कोशिश दिखाई देती है। वे बताते हैं कि हमारी असलियत ही इस ब्रह्मांड का एकमात्र सच नहीं है, इसके अलावा भी अन्य कई वास्तविकताएं हैं, जिन्हें समझने की कोशिश हमें करना चाहिए।
‘पद्म विभूषण’, ‘पद्म भूषण’, महाराष्ट्र भूषण, संरा का कलिंग पुरस्कार जैसे कई सम्मान और अवार्ड डा. नार्लीकर के नाम हैं। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा लेकर 1972 में वापस भारत लौटे डा. नार्लीकल ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) में खगोल विज्ञान विभाग के प्रमुख का पद संभाला। 1988 में इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफ़िज़िक्स (आयुका) संस्थान के फाउंडर डायरेक्टर बने। इसी साल यूजीसी ने डॉ. नार्लीकर को अंतर-विश्वविद्यालय खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी केंद्र के संस्थापक निदेशक की जिम्मेदारी सौंपी थी, जिस पर वे सेवानिवृत्ति तक बने रहे। फ्रेंड होयल के साथ डा. नार्लीकर ने ‘होयल- नार्लीकर थ्योरी ऑफ ग्रैविटी’ विज्ञान जगत को दी, जिसकी दुनिया भर में चर्चा होती है।
देश में वैज्ञानिक चेतना को बढ़ाने और खासकर बच्चों में विज्ञान के लिए रुचि पैदा करने से डा. जयंत विष्णु नार्लीकर को सही मायने में श्रद्धांजलि दी जा सकती है।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल से साभार)

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