सीजेआई की सोच से एक पीआईएल की संभावना

-सुनील कुमार Sunil Kumar

भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई ने अभी यूनाइटेड किंगडम के सुप्रीम कोर्ट में आयोजित एक बैठक में यह विचार रखा कि जजों के रिटायर होने के बाद उन्हें सरकार से कोई नियुक्ति लेने, या उनके चुनाव लडऩे की सोच खतरनाक है। उन्होंने इस पर गंभीर फिक्र जताते हुए कहा कि ऐसा होने पर अदालत की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं, और जनता का भरोसा डगमगाता है। उन्होंने कहा कि जब रिटायर होने के बाद तुरंत ही कोई पद मंजूर करे, या इस्तीफा देकर चुनाव लड़े, तो यह गंभीर नैतिक चिंता का मुद्दा है, और इससे यह धारणा बन सकती है कि (इन जजों के) न्यायिक फैसले उनकी भविष्य की राजनीतिक या सरकारी उम्मीदों से प्रभावित थे। जस्टिस गवई ने कहा कि उन्होंने और उनके कई साथियों ने सार्वजनिक रूप से यह संकल्प लिया है कि वे रिटायर होने के बाद कोई सरकारी पद मंजूर नहीं करेंगे, और यह प्रतिबद्धता न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश है। इस मौके पर उन्होंने अदालती कामकाज के दूसरे कई पहलुओं पर भी चर्चा की जो कि अपने आपमें अलग चर्चा का मुद्दा हैं, और आज यहां पर हम सिर्फ इस नैतिक पहलू को ही उठा रहे हैं जिसे जस्टिस गवई ने पूरे वजन के साथ सामने रखा है।

हम लंबे समय से लगातार इस बात के हिमायती हैं कि रिटायरमेंट के बाद जजों, और अफसरों को उन प्रदेशों में कोई पुनर्वास नहीं लेना चाहिए, जहां पर उन्होंने जज या नौकरशाह की तरह काम किया हुआ है। हम बहुत से लोगों को देखते हैं कि वे अदालत या सरकार की नौकरी में रहते हुए ऐसा रूख दिखाने लगते हैं कि सत्ता उन्हें किसी सुविधाभोगी जगह पर अगले कुछ बरसों के लिए बिठा दे। देश के हर प्रदेश में आज बहुत से ऐसे संवैधानिक-दर्जा प्राप्त आयोग हो चुके हैं जिनमें रिटायर्ड जज और आईएएस-आईपीएस अफसर तकरीबन एकाधिकार जमाए हुए रहते हैं। सरकारें इनके रिटायर होने, या इन आयोगों की कुर्सियां खाली होने के पहले कार्टून में खच्चर के सामने टांगी गई गाजर की तरह इन कुर्सियों को दिखाती रहती है ताकि इनके कार्यकाल के आखिरी बरसों के फैसले भविष्य की इस संभावना को ध्यान में रखते हुए हों। सत्ता अपनी मर्जी के काम करवाने के लिए, या मर्जी के अदालती फैसले पाने के लिए इन कुर्सियों को वैसे ही इस्तेमाल करती है जैसे मछली पकडऩे वाले लोग एक हुक में केंचुआ फंसाकर उसे पानी में डालते हैं।

भारत में एक से बढक़र एक शर्मनाक मिसालें मौजूद हैं। इनमें अदालत से निकलकर सीधे राजभवन, या राज्यसभा पहुंचने वाले जज भी हैं, और अदालत से निकलकर सीधे एक पार्टी के दफ्तर पहुंचकर उसका दुपट्टा-गमछा पहनकर चुनाव लडऩे वाले जज भी हैं। जजों से परे अफसर भी इसी किस्म से लार टपकाते हुए नौकरी के आखिरी कुछ बरस ठकुरसुहाती करते दिखते हैं, जबकि इन दोनों ही तबकों को रिटायर होने के बाद भी इतनी पेंशन मिलती है कि वे ईमानदारी के साथ अपना परिवार जिंदगी भर चला सकते हैं। हम हितों के इस टकराव के खिलाफ दर्जनों बार लिखते आए हैं, और हमारी सलाह यही है कि किसी भी राज्य के संवैधानिक या सरकारी ओहदे पर उस राज्य में काम कर चुके किसी भी जज या अफसर को मनोनीत करने पर कानूनी रोक लगनी चाहिए। चूंकि मौजूदा सीजेआई ने इसे लेकर नैतिकता का सवाल उठाया है, तो यह सही मौका है कि इसे लेकर एक जनहित याचिका दायर की जाए, और ऐसी ब्लैकलिस्ट के पैमाने तय करने की मांग की जाए। हमारा यह भी मानना है कि अगर कुछ संवैधानिक, या सरकारी पदों पर जज या बड़े अफसर रह चुके लोगों की सचमुच ही जरूरत है, तो ऐसा काम करने की हसरत रखने वाले लोगों का राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंट-पूल बनाना चाहिए, और उसमें से हर राज्य के लिए ऐसे लोग छांटे जाएं जिनका उस राज्य से कोई लेना-देना नहीं रहा है। आज जिस तरह हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज तय करने के लिए न्यायपालिका का एक कॉलेजियम है, आज सीबीआई जैसी कई एजेंसियों के डायरेक्टर तय करने के लिए प्रधानमंत्री, और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष वाली एक कमेटी है, उसी तरह देश भर में लोगों की नियुक्ति के लिए एक पारदर्शी कमेटी होनी चाहिए, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के कोई जज हों, कोई एक केन्द्रीय मंत्री हो, नेता प्रतिपक्ष हो, और इसी तरह के यूपीएससी जैसे किसी ओहदे पर बैठे हुए एक-दो और लोग भी हों। ऐसी कमेटी तमाम लोगों के नामों को लेकर, राज्य और केन्द्र में ऐसे खाली होने वाले संवैधानिक पदों के लिए नाम छांटे जो कि राज्यों के मामले में वहां पर काम किए हुए न हों। केन्द्र के मामले में चूंकि दूसरे देश के लोगों को तो लिया नहीं जा सकता, इसलिए देश के लोगों को ही कैसे पारदर्शी तरीके से लिया जा सकता है, इसका एक पैमाना बनाना चाहिए। अगर राज्यों से भी शुरूआत हो जाती है, तो भी अनैतिक पक्षपात का सिलसिला खत्म होगा।

लोकतंत्र में पारदर्शिता बहुत जरूरी है, और उसके बिना नैतिकता की कोई बात हो भी नहीं सकती। न्यायपालिका जब सत्ता से कई किस्म की सहूलियतों वाला वृद्धावस्था-पुनर्वास पाने लगती है, तो उसके अदालती फैसलों पर लोगों का भरोसा नहीं रह जाता। मुख्य न्यायाधीश ने चाहे यह बात अदालत से परे एक सार्वजनिक मंच पर कही है, लेकिन इसे एक मौका मानकर सामाजिक कार्यकर्ताओं को अदालत जाना चाहिए, और सत्ता के इर्द-गिर्द चलते ऐसे अनैतिक गठजोड़ को तोडऩे की कोशिश करनी चाहिए।

(देवेन्द्र सुरजन की वॉल् से साभार)

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