
-देवेंद्र यादव-

राहुल गांधी को यदि कांग्रेस को फिर से मजबूत करना है तो, सबसे पहले इंडिया गठबंधन दलों को गंभीरता से समझना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि पार्टी का पारंपरिक मतदाता कहां शिफ्ट हुआ और कांग्रेस को आज देश में कमजोर कौन बता रहे है।
यदि बात करें कांग्रेस के पारंपरिक मतदाताओं की और इस सबसे पुरानी पार्टी को कमजोर बताने वाले संगठन और उनके नेताओं की तो उसका पारंपरिक मतदाता विभिन्न राज्यों में बने क्षेत्रीय दलों की ओर शिफ्ट हुआ। जब क्षेत्रीय दल अपने अपने राज्यों में मजबूत हुए तो कांग्रेस नीत गठबंधन में शामिल होकर कांग्रेस को अपने-अपने राज्यों में कमजोर बताने लगे। कांग्रेस के साथ राजनीतिक सौदा बाजी करने लगे। कांग्रेस के रणनीतिकार इसे समझ नहीं पाए और ना ही अभी भी समझ पा रहे हैं। जहां क्षेत्रीय दल कांग्रेस के पारंपरिक मतदाताओं के कारण मजबूत हुए, उन राज्यों में कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गई और आज तक भी उन राज्यों में नहीं उभर पा रही है।
कांग्रेस को यह समझना होगा कि देश में कांग्रेस ना तो भाजपा के और ना ही कांग्रेस के नेताओं के कारण कमजोर हुई है जिन्हें स्लीपर सेल की संज्ञा दी जा रही है बल्कि कमजोर हुई है विभिन्न राज्यों में क्षेत्रीय दलों के उभार के कारण। राज्यों में अधिकांश क्षेत्रीय दल दलित, आदिवासी और पिछड़ी जाति वर्ग के नेताओं के द्वारा बनाए गए हैं। यह वर्ग कांग्रेस का पारंपरिक मतदाता था जो अब अपने नेताओं के द्वारा बनाए गए राजनीतिक दलों में जाकर शिफ्ट हो गया। इन दलों की वजह से कांग्रेस झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे अनेक राज्यों में कमजोर हो गई।
मजेदार बात तो यह है कि चार दशक गुजरने के बाद भी कांग्रेस के रणनीतिकार यह नहीं समझ पाए कि कांग्रेस के पारंपरिक मतदाताओं की कांग्रेस में वापसी कैसे करवाएं। जिन क्षेत्रीय दलों ने पारंपरिक वोट हथियाया कांग्रेस उन्हीं दलों से चुनावी समझौता कर अपने पारंपरिक मतदाताओं की पार्टी में वापसी कराने की उम्मीद कर रही है। यह संभव बिल्कुल नहीं है बल्कि जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से समझौता कर अपना बचा कुछा जनाधार भी क्षेत्रीय दलों को समर्पित कर रही है। क्षेत्रीय दलों से समझौता करके कांग्रेस स्वयं अपने आप को कमजोर दिखा रही है। राहुल गांधी और कांग्रेस के रणनीतिकारों को अपनी नेता श्रीमती सोनिया गांधी के उस इतिहास को याद करना चाहिए जब बगैर क्षेत्रीय दलों के सहयोग के 2004 में वह मजबूत राजनेता प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को हराकर कांग्रेस को सत्ता में वापस लेकर आई थी। कांग्रेस ने एक दशक तक केंद्र की सत्ता पर राज किया।
क्षेत्रीय दलों से समझौता कर कांग्रेस ने अपना जन आधार कैसे लुटाया इसका उदाहरण पश्चिम बंगाल है जहां कांग्रेस का लगभग सब कुछ खत्म हो गया। यही हाल लोकसभा चुनाव 2024 से पहले उत्तर प्रदेश का था। देश में ऐसे अनेक राज्य हैं जहां कांग्रेस के रणनीतिकारों की नाकामियों और गलत रणनीति के कारण कांग्रेस ने सब कुछ लुटा दिया। क्या कांग्रेस बिहार में भी ऐसा ही करने जा रही है। यदि बिहार की बात करें तो 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 29 विधानसभा सीट जीती थी जबकि 2015 में जीत का यह आंकड़ा कहीं अधिक था। कांग्रेस बिहार में राजद से समझौता करती आ रही है। कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा घट रहा है जबकि राजद की सीटों का आंकड़ा बढ़ रहा है। मतलब साफ है राजद का वोट कांग्रेस को नहीं मिल रहा है जबकि कांग्रेस का वोट राजद को मिल रहा है। इसीलिए कांग्रेस की सीट 2015 की अपेक्षा 2020 के विधानसभा चुनाव में घटी और राजद की सीट बढी। राजद सत्ता के करीब पहुंची और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। राहुल गांधी को समय रहते इस पर ध्यान देना होगा कि क्षेत्रीय दलों से समझौता करके कांग्रेस को नफा होता है या नुकसान। अभी तक जो तस्वीर नजर आ रही है उसे देखकर लगता है कि क्षेत्रीय दलों से समझौता कर कांग्रेस को फायदा नहीं बल्कि नुकसान ज्यादा हुआ है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और मजबूत पार्टी है जिसने लंबे समय तक देश पर राज किया है। आज भी देश की जनता भारतीय जनता पार्टी के विकल्प के रूप में कांग्रेस की तरफ ही अधिक देखती है ना की क्षेत्रीय दलों की तरफ। वहीं कांग्रेस के रणनीतिकार कांग्रेस को मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय दलों की तरफ देख रहे हैं। भाजपा नहीं बल्कि क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस को कमजोर बताकर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहे हैं। कांग्रेस भी क्षेत्रीय दलों के झांसे में आकर अपना जन आधार भी खोती जा रही है। राहुल गांधी को इसे गंभीरता से समझना होगा और शुरुआत बिहार से करनर होगर वरना जो बिहार में होगा वही आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में भी होगा जहां क्षेत्रीय दल कांग्रेस को कमजोर बता कर राजनीतिक सौदेबाजी करेंगे। कांग्रेस को यदि राज्यों में मजबूत होना है तो एक बार बगैर क्षेत्रीय दलों के अपने पैरों पर स्वयं खड़ा होना पड़ेगा। अपनक दम पर चुनाव लड़ना होगा। इस रणनीति के तहत ही कांग्रेस का पारंपरिक मतदाता भी कांग्रेस में वापसी कर पाएगा। यदि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से राज्यों में चुनावी समझौता कर चुनाव लड़ती रही तो कांग्रेस भूल जाए कि उसका पारंपरिक मतदाता कांग्रेस में कभी वापसी कर पाए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)