
-देवेंद्र यादव-

राहुल गांधी कहते हैं डरो मत। वह कहते हैं मैं किसी से नहीं डरता फिर क्यों कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं के जेहन में यह सवाल बार-बार उठता है कि राहुल गांधी कांग्रेस में मौजूद स्लीपर सेलों से डरते हैं। क्यों नहीं उनके खिलाफ कार्रवाई करते हैं। क्यों ऐसे लोगों को ही बार-बार संगठन में जिम्मेदारी देते हैं। यह राहुल गांधी का डर नहीं है तो फिर क्या है।
शायद राहुल गांधी का यह डर तो नहीं है। हां मजबूरी जरूर हो सकती है, क्योंकि 2004 में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की, तब कांग्रेस के पास श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जैसा मजबूत नेता नहीं था। जिसकी धमक और शर्म कांग्रेस के नेताओं को होती। कांग्रेस के पास श्रीमती सोनिया गांधी थी और प्रधानमंत्री थे मनमोहन सिंह। जिनके पास इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जैसी मजबूत राजनीतिक शिक्षा नहीं थी। दोनों नेता राजनीतिक शिक्षा सीख रहे थे और दोनों को सिखाने वाले नेता बड़े ही चतुर और चालाक थे। उन्होंने सबसे पहले 10, जनपद के ज्ञानी गुरुओं को बाहर किया और उनके स्थान पर खुद आकर जम गए और उन्होंने देश भर में अपना नेटवर्क स्थापित किया। उनमें से कई नेता अपने-अपने राज्यों में मठाधीश बनकर बैठ गए और कांग्रेस की पूंजी को समेट कर उस पूंजी पर कुंडली मारकर बैठ गए। शायद यही कांग्रेस नेतृत्व और राहुल गांधी की मजबूरी है। ऐसे नेताओं से ही राहुल गांधी को डर लगता है। इसलिए नहीं लगता है कि वह कोई मजबूत जनाधार वाले नेता हैं बल्कि वह नेता पूंजी से मजबूत हैं। क्योंकि कांग्रेस के पास पैसा नहीं है। पैसा है कुंडली मारकर बैठे नेताओं के पास। इसीलिए कांग्रेस और राहुल गांधी को नहीं चाहते हुए भी उन नेताओं से मजबूरी में समझौता करना पड़ता है और शायद इसीलिए कांग्रेस धीरे-धीरे खत्म होने लगी।
जिसका उदाहरण मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा है। यदि नेताओं की जगह धन कांग्रेस के पास होता तो इन राज्यों में सत्ता कांग्रेस के पास होती।
सवाल यह है कि कांग्रेस और राहुल गांधी की मजबूरी और उनकी असल पूंजी जो कांग्रेस कार्यकर्ताओं के रूप में बड़ी संख्या में है उसे भी धीरे-धीरे खत्म कर रही है, इसलिए राहुल गांधी को डरो मत के अलावा मजबूर मत बनो का नारा भी लगाना होगा। तभी कांग्रेस देश में फिर से खड़ी होगी। कांग्रेस और राहुल गांधी को मजबूरी का भूत अपने मन से निकालना होगा, तभी उनका नारा डरो मत सही मायने में सफल होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)