
– शैलजा ने बढ़ाई सियासी धड़कने
-गजानंद शर्मा-

हरियाणा में विधानसभा चुनाव में मतदान में 10 दिन रह गए हैं और राज्य में सियासी घमासान दलित वोटों पर आकर केंद्रित हो गया है। सत्ता में वापसी के लिए जद्दोजहद कर रही सत्तारूढ भाजपा हो या मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस या अपने राजनीतिक प्रभामंडल को लगे ग्रहण से बाहर निकल के लिए संघर्ष कर रही जननायक जनता पार्टी और इंडियन नेेशनल लोकदल यानी इनेलो हो। सभी की नजर दलित मतों पर लगी है। किसी की तोड़ने के लिए तो किसी की उन्हें हासिल करने के लिए। दलित मत हरियाणा विधानसभा चुनाव की धुरी बन गए हैं। कांग्रेस और भाजपा के बीच तो चुनावी मोर्चे पर एक दूसरे को पटखनी देने के लिए दलित मतों को साधने की जंग चल रही है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सोमवार को हरियाणा के दौरे पर थे और उन्होंने दो चुनाव सभाओं को संबोधित किया। दोनों ही सभाओं में दलित मतों को लेकर कांग्रेस पर निशाना साधने का उपक्रम किया। उनका कहना था कि कांग्रेस दलित विरोधी है और उसने बहन कुमारी शैलजा व अशोक तंवर जैसे नेताओं का अपमान किया है। कुमारी शैलजा कांग्रेस की महासचिव भी हैं और पार्टी के बड़े दलित चेहरों में से एक हैं। हरियाणा में वह मुख्यमंत्री पद की दावेदार भी हैं। वह राज्य विधानसभा का चुनाव भी लड़ना चाहती थी, लेकिन पार्टी ने उनको इसकी अनुमति नहीं दी। कुमारी शैलजा व पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस की राजनीति के दो ध्रुव हैं और राजनीतिक क्षेत्रों में यह माना जाता है उनके सफल योग यानी जाट व दलित मतों की युति ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को करारा झटका दिया था। इसमें मुस्लिम मतों को भी जोड़ सकते हैं, इसलिए भाजपा विधानसभा चुनाव में इस युति को कमजोर करना चाहती है। राज्य में जाट, दलित व मुस्लिम मतों का योग करीब 50 प्रतिशत बैठता है। जाट मत सर्वाधिक 27-28 फीसदी व दलित मत 20-21 प्रतिशत माने जाते हैं। यदि दोनों वर्ग साथ हों तो किसी भी पार्टी का सियासी गणित बिगाड़ सकते हैं। भाजपा मेवात अंचल की दो सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार चुकी है और लगता है शैलजा के जरिए कांग्रेस के दलित वोटों में सेंध लगाना चाहती है। गत दिनों राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता मनोहर लाल खट्टर की कुमारी शैलजा को भाजपा में आने की पेशकश को पार्टी की इसी रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। यह बात भी जगजाहिर है कि शैलजा व भूपेंद्र सिंह हुड्डा के बीच सीएम पद को लेकर खींचतान चल रही है। चुनावी पिच पर हुड्डा जहां आगे बढ़कर खेल रहे हैं, वहां शैलजा चुनाव प्रचार में फ्रंटफुट पर नजर नहीं आ रही हैं। माना जा रहा है कि वह विधानसभा चुनाव में हुए टिकट वितरण को लेकर नाराज है। टिकट वितरण में हुड्डा का हाथ ऊपर रहा। यहां तक कि राज्य में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 17 सीटों में से अधिकतर सीटों पर हुड्डा अपने समर्थकों को टिकट दिलाने में सफल रहे। कांग्रेस को सत्ता में वापसी की उम्मीद है, इसलिए पार्टी का शीर्ष नेतृत्व हुड्डा के हाथ बांधकर नहीं रखना चाहता है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष उदयभान भी दलित समुदाय से आते हैं और वह भी हुड्डा खेमे के माने जाते हैं। ऐसे में लगता है चुनाव बाद में हुड्डा मजबूत बनकर उभरेंगे। संभव है कुमारी शैलजा को यही बात अखर रही है कि कहीं हुड्डा उसका दलित वोट बैंक ही नहीं खिसका दें, लेकिन दोनों नेताओं के बीच किसी भी तरह की खटास कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है और कांग्रेस चुनाव के इस मोड़ पर शैलजा को नाराज कर कोई राजनीतिक खतरा भी नहीं उठाना चाहती है। कांग्रेस नेतृत्व शैलजा व हुड्डा को एकजुट होकर चुनाव मैदान में दौड़ते देखना चाहता है, लेकिन भाजपा यह नहीं चाहती और शैलजा को भाजपा की हाल की पेशकश को इसी संदर्भ मे देखा जा रहा है पर शैलजा ने फिलहाल दो टूक कहा दिया है कि उसकी रगों में कांग्रेस का खून है और वह अपने पिता की तरह कांग्रेस के झंडे में लिपटकर ही जाना चाहेंगी। उन्हें कोई नसीहत ना दें। उन्होंने मीडिया के विभिन्न मंचों के साथ बातचीत में यह साफ कर दिया कि वह कांग्रेस छोड़कर नहीं जा रही हैं। वह कहती हैं कि उन्होंने पार्टी को मजबूत करने के लिए काम किया है और लोकसभा चुनाव के नतीजों में इस मेहनत का असर देखा जा सकता है। साथ ही वह अपनी यह महत्वकांक्षा भी नहीं छिपाती कि वह मुख्यमंत्री बनना चाहती हैं। शायद 61 वर्षीय इस दलित नेता को लगता हो कि उसे वरिष्ठता के आधार पर भी राज्य की कमान संभालने का मौका मिलना चाहिए, लेकिन उनकी यह महत्वाकांक्षा भाजपा की रणनीति या महत्वाकांक्षा में फिट नहीं बैठती है। राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि कांग्रेस से दलित वोटों के छिटकने से भाजपा को फायदा होगा। शैलजा को लेकर उसकी पेशकश के पीछे का गणित भी यही माना जाता है। भाजपा के कोर मतों की गणना में ब्राह्मण व ओबीसी प्रमुख हैं। बिश्नोई व यादव मत भी उसकी गणित का हिस्सा हैं। चुनावी रणनीतिकार व विश्लेषक भी यह मानते हैं कि हरियाणा में जाट और दलित वोट बंटे तो फिर भाजपा की राह आसान हो सकती है। इसलिए भाजपा शैलजा के जरिए दलितों मतों को साधना चाहती है। वह आरक्षण के सवाल पर भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी की हाल ही अमेरिका की यात्रा के दौरान की गई एक टिप्पणी को लेकर हमलावर है। भाजपा दावा कर रही है कि कांग्रेस आरक्षण खत्म करना चाहती है और पीएम नरेंद्र मोदी ऐसा नहीं होने देंगे।
हरियाणा में भाजपा ही नहीं अन्य राजनीतिक पार्टियां भी दलित वोटों के जरिए अपना राजनीतिक प्रभामंडल फिर से हासिल करना चाहती हैं। इनमें दो सबसे प्रमुख पार्टियां हैं जननायक जनता पार्टी और इंडियन नेशनल लोकदल हैं। यह दोनों ही पार्टियां पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल के परिवार की सियासी शाखा हैं और उनकी सियासत जाट वोटों पर ही टिकी है, जबकि भाजपा ने भी जाट-बिश्नोई वोटों को अपनी ओर खींचने के पर्याप्त इंतजाम किए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जजपा किंगमेकर बनकर उभरी थी और भाजपा ने उसके साथ मिलकर सरकार बनाई थी, लेकिन लोकसभा चुनाव आते-आते उनका गठबंधन टूट गया और विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही जजपा के कई नेता व विधायक पार्टी का साथ छोड़कर चले गए। जजपा भी अब दलित वोटों के सहारे वापस उभरना चाहती है। इसी चाह में उसने चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी से समझौता किया है। राज विधानसभा की 90 सीटों में से जजपा 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही है जबकि आजाद समाज पार्टी 20 सीटों पर चुनाव मैदान मेें हैं। दूसरी ओर इनेलो ने बसपा से हाथ मिलाया है। वह भी दलित वोट बैंक के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती हैं। एक गठबंधन के तहत इनेलो 53 और बसपा 37 सीटों पर किस्मत आजमा रही है। ओमप्रकाश चौटाला के राजनीतिक वारिस अभय सिंह चैटाला और बसपा के आकाश आनंद मिलकर चुनाव अभियान चला रहे हैं। राज्य में दलित वोट करीब 20 प्रतिशत माने जाते हैं और यह किसी एक क्षेत्र विशेष में केंद्रित नहीं होकर पूरे राज्य में फैले हैं। इसलिए वह किसी भी सीट पर चुनावी समीकरण बदल सकते हैं। उनकी यह ताकत इस चुनाव में खुलकर बोल रही है। हालत यह है कि हरियाणा की राजनीति में वटवृक्ष रहे देवीलाल के परिवार की इन सियासी शाखाओं को भी दलित मतों का सहारा चाहिए, वहीं बसपा को और आजाद समाज पार्टी इन दलों के सहारे अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है।
(सच बेधड़क से साभार। ये लेखक के अपने विचार हैं)