
युद्ध शुरू होने से पहले रूस अमरीका की टक्कर की महाशक्ति होने का दंभ भरता था। सारी दुनिया को लगता था कि पिद्दी-सा देश यूक्रेन कितने दिन रूसी महाशक्ति का मुकाबला कर पाएगा? थोड़े ही दिनों में चीं बोल जाएगा। लेकिन जैसे जैसे युद्ध लंबा खींचता गया तो महाशक्ति होने का यह भरम भी हिमखण्डों की तरह टूटता चला गया।
-धीरेन्द्र राहुल-

ऐसा लगता है कि रूस में इतिहास फिर अपने आप को दोहराने जा रहा है। प्रथम विश्व युद्ध 1914 में हुआ था।तब 1 करोड़ 70 लाख की आबादी के साथ रूस दुनिया का तीसरा सबसे बड़ी आबादी वाला देश था। तब रूस औद्योगिकीकरण में पिछड़ा एक कृषि प्रधान देश था। तब रूस में रेल्वे लाइनों का भी विस्तार नहीं हुआ था।
उसके पास हथियार बनाने की क्षमता भी नहीं थी। सेना में भी योद्धा नहीं, राजशाही के भाई भतीजों का कब्जा था।
प्रथम विश्व युद्ध में रूस जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी के हाथों पराजित हो गया था। रूस में जार मारा गया था और सत्ता रोमोनोव परिवार के हाथ में आ गई थी जिसने तीन साल शासन किया। लेकिन उसे भी फरवरी 1917 में उखाड़ फेंका गया। इसके बाद नवम्बर 1917 में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाल ली और नए युग का सूत्रपात किया।
युद्ध अनेक साम्राज्यों के पतन का कारण रहे हैं।
ऐसा लगता है कि पुतिन की बेलगाम तानाशाही भी अब उसी ओर बढ़ रही है। पुतिन सन् 2012 से रूस के राष्ट्रपति हैं। चुनाव वहां एक मजाक है। पुतिन जैसा चाहे, वैसे नतीजे मतपेटी से निकाल लेते हैं। विपक्ष में कोई नेता थोड़ा भी लोकप्रिय होता है, तो वह थोड़े दिन ही जिन्दा रहता है। कहीं कोई चुनौती नहीं। मैदान पूरी तरह साफ।सत्ता पर एकछत्र
निरंकुश राज।
राष्ट्रपति बनने के दो साल के अंदर ही उन्होंने यूक्रेन के साथ युद्ध छेड़ दिया। कहा गया कि यूक्रेन की सत्ता नव नाजियों के हाथों में है और वे रूसी अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार कर रहे हैं।
इसके बाद यूक्रेन ने नाटो की सदस्यता लेने की कोशिश की तो पुतिन ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन के समूल नाश तक पूर्ण युद्ध शुरू का ऐलान कर दिया।
युद्ध शुरू होने से पहले रूस अमरीका की टक्कर की महाशक्ति होने का दंभ भरता था। सारी दुनिया को लगता था कि पिद्दी-सा देश यूक्रेन कितने दिन रूसी महाशक्ति का मुकाबला कर पाएगा? थोड़े ही दिनों में चीं बोल जाएगा। लेकिन जैसे जैसे युद्ध लंबा खींचता गया तो महाशक्ति होने का यह भरम भी हिमखण्डों की तरह टूटता चला गया।
आज युद्ध को दो साल छह माह हो गए। इसकी उपलब्धि यह है कि यूक्रेन के 1000 सैनिकों ने रूस में घुसकर उसके 28 गांवों पर कब्जा कर लिया और कई रूसी सैनिकों को बंधक बना लिया।
अब तक तो रूस की जनता चुप थी लेकिन कुर्स्क पर यूक्रेन का कब्जा होते ही रूस की आम जनता को देश की सुरक्षा खतरे में नजर आने लगी है। इसके बाद सोशल मीडिया पर पुतिन के खिलाफ जनाक्रोश भड़क उठा। पुतिन की युद्ध नीति को विफल बताते हुए लोग उनसे इस्तीफ़े की मांग कर रहे हैं।
इन स्थितियों में वे समझौते की टेबल पर आए तो उसे भी उनकी पराजय के रूप में ही देखा जाएगा। लेकिन यदि वे युक्ति से काम ले तो उन्हें नरेन्द्र मोदी का कहना मान लेना चाहिए। यूक्रेन के साथ सम्मानजनक शर्तों पर युद्ध विराम कर लेना चाहिए।
अगर पुतिन लड़ना ही चाहते हैं तो अब उन्हें दो मोर्चों (घरेलु और बाहरी) पर एक साथ लड़ना होगा। जाहिर है कि अपने ही देशवासियों से गुत्मगुत्था होना ज्यादा मुश्किल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)