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डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
मंदिरों के शहर तिरुचि में श्रीरंगम के मंदिर के साथ ही उच्चि पिल्लैयार मंदिर का भी समकालीन और समकक्ष महत्व है, जो मलयकोटड्ढ्टै (रॉकफोर्ट) पर स्थित है। पिल्लैयार यानी प्रथम पूज्य भगवान गणेश भगवान। श्रीरंगम के रंगनाथ स्वामी मंदिर के पीछे उनकी ही कहानी है। गणेश का यह देवालय ऊंचे पहाड़ पर स्थित है जिसको देखकर ऐसा लगता है कि इसकी निगाह पूरे शहर पर है।

डॉ. पीएस विजयराघवन

मंदिर कितना पुराना है इसका तो केवल अंदाजा ही लग सकता है। हालांकि सातवीं शती में इसके होने के साक्ष्य मिलते हैं। रॉकफोर्ट वह जगह मानी जाती है जहां गणेश के पीछे विभीषण भागे थे।

पौराणिक कथा

सीता हरण के बाद भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई की। विभीषण की मदद से उन्होंने रावण का संहार किया। सीता, लक्ष्मण, हनुमान, सुग्रीव व विभीषण समेत वे अयोध्या लौटे। विभीषण को लंका का राजा घोषित करने के साथ ही भगवान राम ने उनको विष्णु के रूप रंगनाथ की विग्रह दिया कि वे इसे अपने साथ लंका ले जाएं। देवताओं को यह बात गले नहीं उतरी कि भगवान असुरों की नगरी में स्थापित हो जाएं। ऐसा होता तो दानव कुल शक्तिमान हो जाएगा। देवताओं ने विघ्नहर्ता की शरण ली। गणेश ने असुरों की समस्या का निदान करने का विश्वास दिलाया। विग्रह के साथ वापसी में विभीषण तिरुचि से गुजर रहे थे। तब उनकी इच्छा कावेरी में स्नान करने की हुई। भगवान राम ने विभीषण से कहा था कि मार्ग में उन्होंने अगर इस विग्रह को कहीं रखा तो यह वहीं स्थापित व स्थिर हो जाएगा। विभीषण वहां उपयुक्त व्यक्ति की तलाश कर रहे थे जिसे वे यह विग्रह थमाकर नहा सकें। उस वक्त गणेश ने चरवाहे बालक का रूप धरा और उनके सामने आण्। विभीषण को यकीन दिलाकर विग्रह लिया। जैसे ही विभीषण नहाने कावेरी के गहरे पानी में गए। गणेश ने विग्रह को कावेरी तट पर स्थापित कर दिया। जिसे श्रीरंगम कहा जाता है, जहां विश्व प्रसिद्ध रंगनाथ स्वामी का मंदिर है। यह देख विभीषण आग बबूला हो उठे और बालक का पीछा किया। विभीषण से बचते हुए गणेश ऊंचे पहाड़ रॉकफोर्ट (मलयकोट्टै) पर चढ़ गए। विभीषण ने उनको वहां पकड़ा और मस्तक पर चोट की। कहा जाता है कि मूल विग्रह के मस्तक पर इस चोट का निशान आज भी प्रदर्शित है। गणेश ने अपनी असली मुद्रा में विभीषण को दर्शन दिए और कहा कि विष्णु का विग्रह श्रीरंगम में ही स्थापित रहेगउ। यह सुनकर विभीषण ने लंका के लिए विदा लीं। इस कहानी से स्पष्ट है कि मंदिर का इतिहास रामायणकालीन है।

निर्माण व विस्तार

पल्लव राजाओं ने जिस तरह श्रीरंगम मंदिर का विस्तार किया उसी तरह पर्वत पर इस मंदिर का निर्माण भी कराया गया। जहां विभीषण से बचने के लिए विनायक ने शरण ली थी। यह मंदिर पर्वत पर 83 मीटर की ऊंचाई पर है। पल्लव शासकों ने पर्वत को काटकर मंदिर का निर्माण शुरू कराया था लेकिन इसे पूरा किया विजयनगर के शासकों ने। मंदिर का शिल्प भित्ति चित्र पर आधारित है। इतने ऊंचे पर्वत पर विराजमान होने के बाद भी मुख्य मंदिर काफी छोटा है जिसके लिए सीढियां चढनी होती है। इस पर्वतीय मंदिर से कावेरी और श्रीरंगम के मंदिर की छटा अद्भुत और निराली दिखाई पड़ती है। मंदिर का अनुरक्षण पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया जा रहा है। पिल्लैयार के साथ ही भगवान शिव का दयमानवर और पार्वती मट्टवर कुयलामै का मंदिर भी है। सातवीं शताब्दी के इन मंदिरों के दर्शन के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। पिछले एक दशक में यह मंदिर पर्यटन का केंद्र बनकर उभरा है। श्रीरंगम के दर्शनार्थ आने वाले लोग यहां भी जरूर आते हैं।

रात आठ बजे मंदिर बंद

पर्वत पर स्थित मंदिर साफ-सफाई व पेयजल की सुविधा के नजरिए से ठीक-ठाक है लेकिन श्रद्धालुओं को अधिक सुविधाओं की जरूरत है। मसलन, रात आठ बजे मंदिर बंद कर दिया जाता है। दूर-दराज से आने वाले श्रद्धालु इस वजह से मायूस हो जाते हैं। अमूमन राज्य के अधिकतर मंदिर नौ बजे तक अवश्य खुले रहते हैं। मंदिर के प्रशासन अधिकारी शीघ्र बंद किए जाने का कारण सुरक्षा को बताते हैं। दूसरी समस्या सुबह के वक्त ऊपर चढने वाले श्रद्धालुओं की है। दिन उगने के बाद सूर्य के पारे से पहाड़ तपने लगता है। मंदिर जिस शिखर पर है वहां तक पहुंचने के लिए पचास से अधिक सीढियां हैं जो तीखी व सीधी है। इस वजह से श्रद्धालुओं के पांव झुलसने लगते हैं इसे ठीक किया जा सकता है।

(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)

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