
-डॉ. रमेश चन्द मीणा

भारतीय शिल्पकला में “नटराज” की प्रतिमा न केवल अद्भुत सौंदर्य का दृष्टांत है, बल्कि यह शिव के तांडव नृत्य के माध्यम से सृष्टि, लय और प्रलय के गहन दार्शनिक सिद्धांतों को भी मूर्त रूप देती है। नटराज की यह प्रतिमा कांस्य धातु में ढाली गई है और द्रविड़ शिल्प परंपरा की उत्कृष्ट कलात्मकता का परिचायक है। यह मूर्ति तमिलनाडु के चोल वंश की प्रसिद्ध कांस्य प्रतिमाओं की परंपरा का अनुकरण करती है, जिसकी जड़ें 10वीं शताब्दी में खोजी जा सकती हैं।
“नटराज” मूर्तिशिल्प में प्रतीकात्मकता सौंदर्य अंतर्निहित हैं। अग्नि-मंडल : मूर्ति के चारों ओर बना चक्राकार अग्नि-चक्र ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीक है। यह निरंतर चल रहे सृष्टि चक्र — सृजन, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रह — का दृश्य रूप है। डमरु: शिव के एक हाथ में डमरु है, जिससे नाद उत्पन्न होता है। यह नाद ही ब्रह्मांड की पहली ध्वनि (ॐ) है, जिससे सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है। डमरु सृजन का प्रतीक है। अग्नि: दूसरे हाथ में अग्नि है जो संहार का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि सृष्टि का अंत भी शिव की इच्छा से होता है — ताकि पुनः नये सृजन का मार्ग खुले। अभयमुद्रा और हस्तमुद्रा: तीसरे हाथ की अभयमुद्रा आश्रय और निर्भयता का प्रतीक है — शिव भय का नाश करने वाले हैं। चौथा हाथ गजहस्त मुद्रा में है, जो भक्त को आत्मसमर्पण और आशीर्वाद का संकेत देता है। अपस्मार: शिव का एक पाँव अपस्मार (अज्ञान) नामक राक्षस को दबाए है। यह इंगित करता है कि अज्ञान पर ज्ञान की विजय शिवतत्व से ही संभव है। यह अज्ञान पर चेतना की विजय का प्रतीक है। उठा हुआ पाँव: दूसरा पाँव ऊपर उठा है, जो मोक्ष का संकेत करता है — वह मार्ग जो भक्त को अज्ञान से ऊपर उठाकर शिवत्व की ओर ले जाता है।
चतुर्भुज शिव हैं — एक कर में डमरु है, जो नाद और सृजन का प्रतीक है, दूसरे कर में अग्नि, जो संहार और रूपांतरण का संकेत करती है, तीसरी कर मुद्रा अभयमुद्रा है, जो संरक्षण का संकेत देती है, और चौथी कर मुद्रामें है गजहस्त मुद्रा, जो आशीर्वाद और आत्मसमर्पण को प्रकट करती है।
इन मुद्राओं में गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य निहित हैं। नटराज का यह नृत्य केवल भौतिक गति नहीं है, यह ब्रह्मांडीय लय है, जिसमें जीवन का आरंभ, विकास, अंत और पुनः सृजन समाहित है।
मूर्ति में शिव का केश मुकुट, उनके प्रसन्न और शांत चेहरे के भाव, और शरीर की लहरदार रेखाएं अत्यंत कलात्मक संतुलन को दर्शाती हैं। यह नृत्यस्थ मुद्रा जीवन के विविध आयामों को एक ही फ्रेम में समेटती है — शक्ति, गति, सौंदर्य, विनाश, पुनर्निर्माण और करुणा।
इस मूर्ति की भाव-भंगिमा, प्रतीकात्मकता, तथा लयात्मक संरचना न केवल शिल्पकार की अद्वितीय कला चेतना को दर्शाती है, बल्कि दर्शक को ध्यान, मौन और आत्मसाक्षात्कार की ओर भी ले जाती है। यह मूर्ति स्थूल में सूक्ष्म, दृश्य में अदृश्य और लौकिक में आध्यात्मिक की झलक देती है।
इस प्रकार, नटराज की यह प्रतिमा भारतीय शिल्पकला, अध्यात्म और सांस्कृतिक वैभव का अनुपम संगम है — जो समय, स्थान और चेतना की सीमाओं को पार कर शिवत्व का सजीव बिंब बन जाती है। यह मूर्ति दर्शाती है कि शिव केवल देव नहीं, बल्कि नाद, लय, चैतन्य और अनंत के प्रतीक हैं — और नटराज उनके उसी अनश्वर, अपराजेय रूप का मूर्त रूप है।
कलाकार, कवि व सौन्दर्यविद
डॉ. रमेश चन्द मीणा
सहायक आचार्य- चित्रकला
राजकीय कला महाविद्यालय, कोटा
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