-संजय चावला-
कई दुकानदार अपने बिलों पर ही छपवा देते हैं कि बिका हुआ माल वापिस नहीं होगा। दूकान की चमक दमक में हम अक्सर वस्तु खरीद तो लेते हैं किन्तु घर आकर देखते हैं तो लगता है कि माल की क्वालिटी में कुछ कमी है। इसलिए बिल पर छपा यह सदेश कुछ अच्छा तो नहीं लगता। ऑनलाइन खरीदारी इसलिए भी लोकप्रिय हो रही है कि निश्चित अवधि में बिना कारण पूछे सामान वापिस किया जा सकता है। अब संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की है कि राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले साहित्यकारों को लिखित में यह अंडरटेकिंग देनी होगी कि वे अवार्ड वापिस नहीं करेंगे। यानि सरकार का साहित्यकारों के प्रति प्रेम तो है किन्तु वो सशर्त है। साहित्य अकादमी या अन्य संस्था अवार्ड पाने वालों से परिपत्र पर हस्ताक्षर करवाएगा कि सरकार द्वारा उसकी कार्यविधि में जो भी भूल चूक की जा रही है उससे अवार्ड पाने वालों का कोई सरोकार नहीं है। इस हिसाब से तो यह समझा जाये कि राष्ट्रीय पुरूस्कार जिसे दिया जा रहा है उसे उसका कला के उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए नहीं अपितु उसे तो सरकार द्वारा संरक्षण दिया जा रहा है। अब समाज में हिंसा हो, नरसंहार हो, मोब लिंचिंग हो तथा साहित्यकारों को लगे कि सरकार मूक दर्शक बनी बैठी है पर वे किसी प्रकार का विरोध नहीं कर सकते, अवार्ड वापसी तो दूर की बात है। यानि संसदीय समिति घोड़ों को एक बार अस्तबल में बंद करके ताला जड़ देना चाहती है। समिति मानती है कि अवार्ड वापसी से इन अवार्डों की प्रतिष्ठा धूमिल होती है। गठित की जाने वाली अकादमियों, साहित्यकारों की समाज में भूमिका तथा उनको सम्मानित किये जाने के पीछे क्या धारणा है- समिति को पहले यह तो जान लेना चाहिए था।
साहित्य अकादमी एक स्वायत्तशाशि संस्था है। 1950 में सरकार ने ही इसका गठन किया था किन्तु एक बार इसका गठन हो जाने के बाद सरकार का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं रहता। अभी पिछले दिनों हमने देखा राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर ने प्रदेश के 133 लेखकों को उनकी रचनाओं के प्रकाशन हेतु आर्थिक सहयोग राशि स्वीकृत की है। इस सूची में अनेक नाम ऐसे भी हैं जो खुले तौर पर संघ की विचारधारा के माने जाते हैं। सरकार उनसे सहमति नहीं रखती किन्तु अकादमी ने उनकी रचनाओं को श्रेष्ठ माना। पुरूस्कार योग्य रचनाओं का चयन लेखकों के पेनल द्वारा किया जाता है।साहित्य अकादमी के अवार्ड पद्म भूषण अवार्ड्स से भिन्न होते हैं, जोकि राष्ट्रीय पुरूस्कार होते हैं। अकादमी रजिस्टर्ड सोसायटी होती है जिसमें समकक्ष लेखक पुरूस्कार योग्य रचना का चयन करते हैं। फिर, लेखक कोई सरकार का प्रतिनिधि थोड़ी होता है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सरकार या राजा का गुणगान करने वाले रचनाकारों की आवश्यकता नहीं होती। बल्कि लेखक को तो हमेशा सरकार के विपक्ष में ही होना चाहिए। संसद में विपक्ष भले ही कमज़ोर पड जाये किन्तु लेखक ही है जो जनता की अंतरात्मा की आवाज़ की भूमिका निभाता है और सरकार को चुनौती देने का साहस रखता है। अतः अवार्ड वापसी से देश का अपमान हो रहा है- यह तो एक मिथ्या धारणा है. अवार्ड किसी लेखक की श्रेष्ठता की स्वीकारोक्ति है न कि सरकार द्वारा दिया जा रहा संरक्षण। लेखक तो एक आज़ाद पंछी होता है और आप उससे बांड भरवा कर पिंजरे में कैद करना चाहते हो- यह तो कोई सम्मान नहीं हुआ।
2015 में कुल 39 लेखकों द्वारा अवार्ड वापसी की घोषणा की गयी थी। यह उनका समाज में बढ़ रहे असहहिष्णुता के प्रति प्रतिरोध का संकेत था। दक्षिणपंथी समूहों द्वारा विरोध के स्वरों को खुले आम टारगेट किया जा रहा था। कन्नड़ विद्वान और साहित्य अकादमी पुरुस्कार प्राप्त एम एम कलबुर्गी की खुले आम हत्या कर दी गयी थी। सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपने विरोध के स्वर को मुखरित किया था। इसी प्रकार नरेंद्र कलबुर्गी, गोविन्द पानसरे, गौरी लंकेश भी उनकी गोली का निशाना बने। सरकार लेखकों के विरोध को अभिव्यक्त करने के अधिकार की रक्षा नहीं कर पा रही थी। अकादमियां भी लेखकों के पक्ष में खड़ी नज़र नहीं आ रही थी। मुख्यतः लेखक सरकार की निष्क्रियता का विरोध कर रहे थे। वैसे ही जैसे गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर ने जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के बाद ब्रिटिश सरकार को सर की उपाधि लौटा दी थी। ब्रिटिश सरकार ने तो इसे सरकार का अपमान नहीं माना।
संसदीय समिति का मानना है कि अकादमियां गैर राजनीतिक होती हैं। अतः राजनीतिक कारणों से अवार्ड वापिस नहीं किया जा सकता। यह तो एक प्रकार से स्वीकारोक्ति है कि कलाकार राजनीतिक नहीं हो सकते। तो क्या लेखक अपने आप को ‘स्वांत सुखाय’ और‘नख शिख वर्णन’ तक ही सीमित कर लें? मानवता के पक्ष में और सामाजिक न्याय के लिए लिखने वाले राजनीतिक हो जायेंगे? प्रधानमंत्री मोदीजी तथा उनके प्रतिनिधि स्वतंत्र विचार की छाया से ही भिड़ते रहते हैं। शेक्सपियर के नाटक ‘मकबेथ’ का नायक मकबेथ राजा बनने के बाद आयोजित भोज में अपने मरे हुए दुश्मन बेंको की छाया (भूत) से ही भयभीत रहता है। विभिन्न छात्रवृत्तियां, स्कूल कालेज के पाठ्यक्रम और पीएचडी के लिए विषयों को सीमित करने के बाद अब राष्ट्रीय पुरुस्कारों पर नज़र है। लेखकों से बांड साईन करवाना उनका घोर अपमान है। संसदीय समिति की यह सिफारिश यदि लागू हो जाती है यानि लेखक अंतरात्मा की आवाज़ सुनाने के बजाये सरकार के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार काम करने लगेगा तो प्रजातंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़त्म ही समझी जायें।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं टिप्पणीकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)


















राष्ट्रीय पुरस्कार अथवा पद्म पुरस्कार देश के नागरिकों को उनके श्रेष्ठतम कृति, शौर्य,सेवा आदि कार्यों के लिए दिये जाते है. इनको लौटाना सरकार का विरोध है अथवा जिस विशिष्टता के लिए सम्मान मिला है, इसका विरोध है.. प्रजातंत्र में पक्ष और विपक्ष,अक्सर हर मुद्दे का विरोध करते रहते हैं लेकिन कोई भी पलायन नहीं करता है. ?
ये सरकार डरपोक है।