ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
कब तलक ग़फ़लत* में रक्खेगा ये ख़्वाबे-ज़िन्दगी।
तंग आकर कर न लें हम बंद बाबे*-जि़न्दगी।।
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चाहे जितनी कोशिशें कर तू सुकूॅं के वास्ते।
कम न होने पायेगा ये इज़्तिराबे- ज़िन्दगी*।।
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क़द्रो-क़ीमत* कुछ नहीं तलवार जब बेआब* हो।
ज़िन्दगी में आब होना है शबाबे-ज़िन्दगी*।।
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अपने अच्छे या बुरे ऐमाल* का फल पायेगा।
हश्र* के दिन तुझको देना है हिसाबे- ज़िन्दगी।।
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मैं तसव्वुर* में तुझे रक्खूॅं नहीं तो क्या करूँ।
या बता किस तौर गुज़रे ये सराबे-ज़िन्दगी*।।
और क्या दिखलायेगा ये आसमाॅं अपना जलाल*।
हमने अब तो खुद उलट दी है नक़ाबे-ज़िन्दगी।।
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ज़िन्दगी बदलेगी “अनवर” फ़िक्र* को पहले बदल।
इन्क़लाबे- शायरी है इन्क़लाबे-ज़िन्दगी*।।
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ग़फ़लत*भ्रम
बाबेज़िन्दगी जीवन का अध्याय
इज़्तिराबे ज़िन्दगी*जीवन की बेचैनी
क़द्रो-क़ीमत*मूल्य
बेआब*वो तलवार जो पानीदार नहीं हो
शबाबे ज़िन्दगी*जीवन का यौवन
ऐमाल*कर्म
हश्र*हिसाब का दिन, क़यामत
तसव्वुर*कल्पना
सराबे जिन्दगी*जीवन रूपी मरीचिका
जलाल*ग़ुस्सा क्रोध
फ़िक्र*चिंतन
इन्क़लाबे-जिन्दगी*जीवन में बदलाव
शकूर अनवर
9460851271