
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

कैसे हटाऍं लोग उसे अपने ध्यान से।
जाते हैं सारे रास्ते उसके मकान से।।
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जबसे हमारा नाम दिवानों में आ गया।
रहने लगे हैं लोग बड़े सावधान से।।
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रखता हूॅं मैं सहेज के जिस पान दान को।
निस्बत*रही है उसको मेरे ख़ानदान से।।
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ग़ुस्सा तुम्हारी ऑंख में उतरा कहाॅं जनाब।
दरिया कहाॅं चढ़ा अभी ऊपर निशान से।।
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हम दूरियाॅं तो खूब दिलों में बना चुके।
अब फ़ासला भी जल्द मिटे दरमियान से।।
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गर मैं नहीं हूॅं ज़द* में कोई और आयेगा।
जब चल पड़ा है तीर तुम्हारी कमान से।।
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क्या तुमको कोई फ़िक़्र नहीं साय बान* की।
“अनवर” शिकायतें न करो आसमान से।।
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निस्बत* संबद्धता ताल्लुक़
ज़द में* निशाने पर
साय बान*छप्पर
शकूर अनवर


















वाह वाह। क्या बात है। जद में कोई ना कोई तो आएगा।