
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

नाकाम बन के रह गये होकर फ़िगार* हाथ।
जो थे किसी के लम्स* के उम्मीदवार हाथ।।
*
लेकर कहाॅं पे जाऊॅं मैं इस एक जान को।
पीछे पड़े़ हुए हैं मेरे बेशुमार हाथ।।
*
लड़़ते हैं अपने पेट की ख़ातिर ये जंग भी।
करते हैं ज़िंदगी में बहुत जीत हार हाथ।।
*
दुश्मन के नाम पर भी मेरे वक़्त ए शाम आज।
उट्ठे दुआ के वास्ते बे इख़्तियार हाथ।।
डूबा कहाॅं पे हाय मुक़द्दर तो देखिये।
कश्ती से दूर जब कि किनारा था चार हाथ।।
*
क्या क्या न कर गुज़र रहे इस दौर के इमाम*।
क्या क्या न कुफ्र* बेच रहे दीन दार हाथ।।
*
आता है याद अब तो मुसल्सल* वो बेवफ़ा।
पड़ता है अब तो दिल पे मेरे बार बार हाथ।।
*
उठ्ठेगा इन्क़लाब* नया रोज़गार* में।
“अनवर” जो एक हो गए बे रोज़गार हाथ।।
*
फ़िगार* ज़ख्मी
लम्स* स्पर्श
इमाम*पेशवा धार्मिक उपदेशक
कुफ्र* झूट अधर्म
मुसल्सल*निरन्तर
इन्क़लाब*बदलाव क्रांति
रोज़गार में* संसार में
बे रोज़गार* काम धंधे से वंचित बेकार
शकूर अनवर
9460851271
बहुत खूब