तुम उग आते हो

-अनीता मैठाणी-

prtibha naithani
अनीता मैठाणी

तुम उग आते हो
मेरी नींदों के सपनों में ऐसे;
जैसे उग आती हैं-
जिह्वा पर स्वाद कलिकाएं
किसी मनपसंद व्यंजन को देखकर।
तुम उग आते हो
मेरे गीतों की गुनगुनाहट में ऐसे;
जैसे उग आता है-
शिुशु की अस्फुट बोली में
पहला शब्द, माँ !
तुम उग आते हो
मेरे एल्बम के पहले पन्ने में ऐसे;
जैसे उग आता है-
चांद आसमां में,
सूरज के चले जाने पर।
तुम उग आते हो
मेरे आंगन में लगे जूही की डाल पर ऐसे;
जैसे उग आते हैं-
असंख्य तारे
टिमटिमाते हुए
रात की ओढ़नी पर।
तुम उग आते हो
मेरी बातों में बात-बात पर ऐसे
जैसे उग आता है-
लोगों के कहन में
तकिया-कलाम…
तुम उग आते हो
मेरी प्रार्थनाओं में संध्या समय ऐसे
जैसे उग आती है-
मंदिर की घंटियों में ध्वनियाँ
घाटियों से चलने वाली हवा से।
तुम उग आते हो
मेरे एहसासों में घुलते हुए ऐसे
जैसे उग आती हैं-
पेट में तितलियां
गुदगुदाने को यूँ ही अक्सर।

*अनीता मैठाणी

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