
ग़ज़ल
शकूर अनवर
वो उफनती नदी उठती मॅंझधार वो।
मैं इधर इस तरफ़ और उस पार वो।।
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उसका ऑंखों ही ऑंखों में इक़रार वो।
अब मयस्सर* कहाॅं ऐसा दीदार वो।।
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पारसाई* मेरी काट कर रख गया।
ऐसी लाया मुहब्बत की तलवार वो।।
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फिर सितम गर बहाना बना ही गया।
कैसा निकला ज़माने का हुशियार वो।।
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सर्द मोहरी* तेरी याद आई बहुत।
दिल की हर बात पर तेरा इन्कार वो।।
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मिल ही जायेगा हमको किनारा कहीं।
उसकी कश्ती हूँ मैं मेरी पतवार वो।।
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जिसकी “अनवर” किसी को ज़रूरत नहीं।
नफ़रतों की गिरे अब तो दीवार वो।।
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मयस्सर* मिलना प्राप्त होना
पारसाई*पवित्रता
सर्द मोहरी* बे वफ़ाई
शकूर अनवर
9460851271

















