
– विवेक कुमार मिश्र

खुशी को ढ़ूढ़ते ढ़ूढ़ते
न जाने कहां चला जाता है आदमी
खुशी तो मिश्री की डली में छुपी रहती है
काश ! भटकने से पहले
आदमी को मिश्री की डली मिल जाती
आदमी के पास जी का जंजाल इतना है कि
खुशी कम , खुशी का बवाल ज्यादा मिलता
और आदमी है कि इस बवाल को ही
सब मान खुशी को छोड़कर
न जाने कहां कहां भटकता रहता है
भूख से व्याकुल आदमी
इधर उधर देखता ही रहता है
आदमी को भला कहां
आदमी की तरह रखा गया…
जो रखा है वह पछतावा कर रहा है कि
वह भला कैसे रह गया
आनंद से बंचित आदमी भूख में भी उछल जाता है
भला दुःखों के राज में क्या काम है आनंद का…!