वो चाॅंद सा छुपता है निकलता है नज़र से। अक्सर उसे देखा है तो अक्सर नहीं देखा।।

ग़ज़ल

शकूर अनवर

जो फूल था ख़ुशबू से मुअत्तर* नहीं देखा।
तुमने मेरी ऑंखों का वो मंज़र* नहीं देखा।।

क्यूँ तुमने ग़मे-दिल में उतर कर नहीं देखा।
हमने तो किसी ग़म से उभर कर नहीं देखा।।
*
हमने भी इसे शौक़ की हद* तक ही लिया है।
तुमने भी मुहब्बत में तड़पकर नहीं देखा।।
*
किसने हमें दो लफ़्ज़* मुहब्बत के दिये हैं।
किस हाथ में हमने कभी ख़ंजर नहीं देखा।।
*
दर* हो कि दरीचा* तेरी आमद से है रोशन।
इतना तो कभी घर को मुनव्वर* नहीं देखा।।
*
इस रश्के-फ़लक* पर भी तो हम ख़ुद ही चढ़े थे।
ज़ीने* थे सितारों के उतरकर नहीं देखा।।
*
वो चाॅंद सा छुपता है निकलता है नज़र से।
अक्सर उसे देखा है तो अक्सर नहीं देखा।।
*
काॅंटों की हुकूमत है चमन में वही “अनवर”।
बदला हुआ गुलशन का मुक़द्दर* नहीं देखा।।
*

मुअत्तर*ख़ुशबू से भरा हुआ
मंज़र*दृश्य
हद*सीमा
दो लफ़्ज़*दो शब्द
दर*दरवाज़ा
दरीचा*खिड़की
मुनव्वर*रोशन चमकदार
रश्के फ़लक*ईर्ष्या रूपी आकाश
जीने*सीढियां
मुक़द्दर*भाग्य

शकूर अनवर
9460851271

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