
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
फीका फीका सा मंज़र है फिर शाम का।
रंग उड़ने लगा क्यों दरो-बाम* का।।
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कुछ दिनों में सभी फूल मुरझाऍंगे।
ये बहारों का मौसम तो है नाम का।।
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ओ सितम गर जफ़ाओं का आदी* हूॅं मैं।
तेरा लुत्फ़ो- करम* मेरे किस काम का।।
”
सूखी ऑंखों में गहरे समंदर भी थे।
कैसा आग़ाज़* था मेरे अंजाम का।।
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शायरी मुनहसिर* मेरी हालात पर।
कोई दावा नहीं मुझको इलहाम* का।।
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दश्तो सहरा में “अनवर” मिले तो मिले।
क्या ठिकाना उस आवारा गुमनाम का।।
”
दरो-बाम* दरवाज़ा कोठा,
आदी*आदत होना,
लुत्फ़ो-करम* महरबानियाॅं
आग़ाज़* प्रारम्भ,
मुनहसिर* निर्भर,
इलहाम* आकाश वाणी,
शकूर अनवर