चलो! उठो, यूँ न बैठो…

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-भावेश खासपुरिया-

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भावेश खासपुरिया

मैं उसे ऊँची इमारतों, नभ छूती मीनारों, गुंबदों पर लहराती विशाल पताकाओं में वर्षों तक ढूँढ़ता रहा;लेकिन वह वहाँ न मिला। मैंने फिर उसे दशकों पुराने खँडहरों, भूमिगत सभ्यताओं के अवशेषों और निविड़ एकांत में भी तलाशा;लेकिन वह वहाँ भी न मिला। मैं एक रोज़ अपनी तलाश की थकान से भर कर उसी एकांत में बैठ गया। कुछ क्षण पश्चात् भीतर से फफक कर रुदन फूटा और मैं बहुत देर तक वहीं बैठा आहें भर कर रोता रहा। कुछ देर बाद मैं अचानक वहाँ से उठा और अपने रास्ते चला गया।

फिर मैंने न उसे कभी भी तलाशने का प्रयास किया और न ही उसके होने या न होने के प्रश्न पर विचार। क्योंकि वह मेरे कर्म रूपी उसकी तलाश में ही कहीं विद्यमान रहा था। मैं यह स्वीकार कर चुका हूँ कि वह मुझे तलाशने से नहीं, वरन् तलाश की थकान में टूट कर देर तक रो देने के बाद…उस शक्ति में मिलेगा, जो मुझे हर बार असफलता की निराशा से उठाकर पुनः अपने कर्मक्षेत्र में धकेल देती है।

ईश्वर यदि कुछ है, तो संभवतः सिर्फ़ वही एक साहसिक शक्ति है…जो मनुष्य को थकने और टूटने की तो सहूलियत देती है;किंतु टूट कर बिखरने और हार कर बैठ जाने की नहीं। वह मनुष्य के टूटे हुए मन के किसी कोने में श्वास लेता वह एक छोटा सा विश्वास है, जो समय आने पर उसकी ओर अपना कंधा झुका कर कहता है कि “चलो! उठो, यूँ न बैठो…पुनः कर्मरत हो।” और हम वहीं बैठे-बैठे उसकी आँखों में निष्पलक देखते रहते हैं। फिर धीरे से उस कंधे पर अपनी हथेली रख उसका सहारा ले, एक गहरी निःश्वास के साथ उठते हैं और फिर से चल पड़ते हैं…पुनः थक कर कहीं बैठ अंतर्मन निचोड़ कर रो देने और फिर से उसके कंधे को थाम, उठकर चल देने के लिए।

©भावेश खासपुरिया

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