
-देशबन्धु में संपादकीय
लैटरल एंट्री यानी केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर अधिकारियों की सीधी नियुक्ति के फैसले पर विवाद उठने के बाद अब केंद्र की एनडीए सरकार ने इस फैसले को वापस लेने का ऐलान किया है। हाल ही में 17 अगस्त को अखबारों में संघ लोकसेवा आयोग ने केंद्र सरकार के भीतर विभिन्न वरिष्ठ पदों पर लैटरल एंट्री के जरिए ‘प्रतिभाशाली भारतीय नागरिकों’ की तलाश के लिए एक विज्ञापन जारी किया था। इन पदों में 24 मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव शामिल हैं, जिनमें कुल 45 पद रिक्त हैं। विज्ञापन इन्हीं 45 पदों के लिए था। इससे पहले 2018 में भी तत्कालीन मोदी सरकार ने 57 पदों पर इसी तरह नियुक्तियां की थीं। लेकिन तब भाजपा बहुमत में थी और मनमाने फ़ैसले लेकर उन्हें लागू भी कर देती थी। लेकिन इस बार तीसरी बार प्रधानमंत्री का पद नरेन्द्र मोदी को एनडीए के सहयोगियों के कारण हासिल हुआ है, इस वजह से वे मनमानी नहीं कर पा रहे हैं। नतीजा ये है कि सत्ता के ढाई महीनों में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने तीन फ़ैसलों से पीछे हटना पड़ा है। पहले वक्फ़ बोर्ड संशोधन का विधेयक संसदीय समिति को भेजा गया, फिर प्रसारण (ब्रॉडकास्ट) विधेयक को टालना पड़ा और अब लैटरल एंट्री के फैसले को भी रद्द किया गया है।
केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने मंगलवार को संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की प्रमुख को पत्र लिखकर सिविल सेवा निकाय से लैटरल एंट्री के लिए अपना विज्ञापन रद्द करने को कहा है। इस पत्र में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देशों का हवाला देते हुए, संविधान में निहित समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप लैटरल एंट्री की ज़रूरत का आह्वान किया गया, और विशेष रूप से आरक्षण के प्रावधान का जिक्र किया गया है। यानी अब सरकार अगर लैटरल एंट्री लाती है तो उसमें आरक्षण का पालन किया जाएगा। इस पत्र में जितेंद्र सिंह ने जिस तरह से प्रधानमंत्री के हवाले से संविधान की भावना और आरक्षण की व्यवस्था का जिक्र किया है, वह साफ़ तौर पर दिखा रहा है कि केंद्र सरकार पर राहुल गांधी का दबाव असर कर रहा है। दरअसल 17 तारीख के विज्ञापन के फौरन बाद ही राहुल गांधी ने आरोप लगाया था कि यूपीएससी को दरकिनार करने और अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के उम्मीदवारों को आरक्षण से वंचित करने के लिए लैटरल एंट्री का इस्तेमाल किया जा रहा है।राहुल गांधी ने एक ट्वीट में यह भी कहा था कि ‘भाजपा का राम राज्य का विकृत संस्करण संविधान को नष्ट करना और बहुजनों से आरक्षण छीनना चाहता है।’
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इसे आरक्षण को खत्म करने वाला फैसला बताया था। अखिलेश यादव ने तो बाकायदा चेतावनी दे दी थी कि अगर इस फ़ैसले को सरकार ने वापस नहीं लिया तो वे 2 अक्टूबर से आंदोलन करेंगे। लालू प्रसाद यादव ने इस फ़ैसले पर कड़ा विरोध दर्ज किया था। यहां तक कि भाजपा का परोक्ष साथ देने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने भी इस फैसले पर बाकायदा ट्वीट कर अपना विरोध प्रकट किया था। शनिवार से लेकर सोमवार तक केंद्र सरकार के इस फ़ैसले पर जब विपक्षी असहमति दर्ज करते हुए इसे संविधान पर प्रहार और पिछले दरवाजे से आरक्षण को खत्म करने की चाल बता रहे थे, तब केंद्र सरकार में एक अन्य केन्द्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इसका जवाब दिया था कि लैटरल एंट्री की व्यवस्था मनमोहन सिंह सरकार के वक़्त की है। 2005 में, यूपीए ने वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) की स्थापना की थी। अश्विनी वैष्णव ने यहां सीधी जिम्मेदारी पूर्व की कांग्रेस सरकार पर डाल दी और इसके अलावा भाजपा का भी यह आरोप था कि डाॅ.मनमोहन सिंह, रघुराम राजन, सैम पित्रोदा और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे लोगों को कांग्रेस ने लैटरल एंट्री के जरिए ही रखा था। लेकिन अश्विनी वैष्णव और भाजपा ने यह नहीं बताया कि कांग्रेस के शासन में केंद्र सरकार में इस तरह थोक में नियुक्तियां नहीं की गईं, केवल चुनिंदा क्षेत्रों में विशेषज्ञों की सेवाएं लेने के लिए इसका प्रावधान किया गया।
ज़ाहिर है मोदी सरकार कांग्रेस पर उंगली उठाकर भी अपना बचाव नहीं कर सकी और इधर एनडीए के सहयोगी दल जदयू के नेता के सी त्यागी ने सरकार के फैसले के विरोध में कहा कि जब लोग सदियों से सामाजिक रूप से वंचित रहे हैं, तो आप योग्यता की तलाश क्यों कर रहे हैं? श्री त्यागी ने कहा कि ऐसा करके सरकार विपक्ष को एक मुद्दा तश्तरी में परोस रही है। एनडीए का विरोध करने वाले लोग इस विज्ञापन का दुरुपयोग करेंगे। राहुल गांधी सामाजिक रूप से वंचितों के चैंपियन बनेंगे। हमें विपक्ष के हाथों में हथियार नहीं देना चाहिए।’ वहीं एलजेपी (रामविलास) अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने भी कहा कि- ‘किसी भी सरकारी नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए। इसमें कोई किंतु-परंतु नहीं है। निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण मौजूद नहीं है और अगर इसे सरकारी पदों पर भी लागू नहीं किया गया तो गलत होगा।
जब एनडीए के सहयोगियों ने भी इस मुद्दे पर भाजपा का साथ नहीं दिया तो मोदी सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा। इसके बाद नरेन्द्र मोदी को गठबंधन धर्म के पालन की नसीहत मिल रही है कि अब उन्हें मनमाने फ़ैसले लेने की जगह सहयोगियों से विचार करके आगे बढ़ना चाहिए। दरअसल यहां मुख्य सवाल यह नहीं है कि श्री मोदी अपनी मनमानी कब छोड़ेंगे या किस तरह सत्ता का समीकरण साधेंगे। अहम प्रश्न यह है कि संविधान में दिए गए समानता के हक़ को कितने तरह से चोट पहुंचाने की कोशिशें और होंगी। दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अधिकारों पर कब तक सुशासन और विकास के नाम पर कैंची चलती रहेगी। फ़िलहाल यह निश्चिंतता है कि जब तक राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष हैं वे सरकार पर नज़र बनाये रखेंगे, लेकिन लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की रक्षा तभी होगी जब जनता लगातार जागरुकता दिखाये।