
– विवेक कुमार मिश्र

सूरज दादा ओढ़े हुए कोहरे की चादर
चुपचाप चले आ रहे हैं
उनकी पदचाप में सन्नाटा पसरा है
कहीं से कोई आवाज नहीं
सब दुबके पड़े हैं… कोहरे से घिरे समय में
भला कोई भी कैसे निकले कहां जाएं
चारों तरफ बस कोहरे की टप टप बूंदें
गिर रही हैं , पत्तियां ठिठुर रही हैं
जो जहां है वहीं पर कोहरे को लेकर
चिंतित है , तरह तरह की सुगबुगाहट शुरू हो गई है
कि कौन कोहरे के बीच से चला आ रहा है
या कौन कहां जा रहा है
ऐसी भी क्या जल्दी है कि कोहरे में ही भागा जा रहा है
अब भला कौन समझाए कि कोहरा हो या कोई और बांधा
कहां कोई भी रोक पाया कत्तर्व्य पथ पर चलते राही को
सूरज दादा भी तो कोहरे को चीरते हुए ही आते हैं ।