कोटा में अकलंक शोध संस्थान का अनूठा प्रयास

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अकलंक शोध संस्थान में पांडुलिपि संरक्षण के लिए ट्रीटमेंट करते हुए।

—प्राचीन पांडुलिपियों, धर्म ग्रंथों के संरक्षण और संवर्धन के साथ शिलालेखों की जुटा रहे जानकारी
— प्राकृत और हाडोती भाषा के विकास का प्रयास

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कोटा। आईआईटी और नीट की कोचिंग की वजह से देशभर में पहचान बना चुके कोटा शहर में एक संस्थान प्राचीन पां​डुलिपियों, धर्म ग्रंथों के संरक्षण और संवर्धन के साथ शिला लेखों के बारे में जानकारी जुटाने और हाडोती के साहित्यकारों और कवियों की पुस्तकों को सं​रक्षित करने में जुटा है। यह संस्थान अकलंक शोध संस्थान है। अब यह संस्थान प्राचीन प्राकृत भाषा के प्रचार और राजस्थान के स्कूलों में इस भाषा की शिक्षा के साथ स्थानीय हाडोती भाषा के विकास के लिए भी प्रयासरत है।

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सजावट की वस्तुएं तैयार करते हुए।

ज्ञातव्य है कि विश्व के अन्य देशों की संस्कृतियाँ तो समय की धारा के साथ-साथ नष्ट होती रही हैं। किंतु भारतीय संस्कृति आदिकाल से अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर- अमर है। इसके बावजूद धर्म, आध्यात्मिक, चिकित्सा, विज्ञान तथा खगोल ज्ञान की पांडुलिपियों को सहेज कर नहीं रखा गया है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर यह संस्थान कार्यरत है।
अकलंक शोध संस्थान के अध्यक्ष पीयूष जैन के अनुसार इस संस्थान की कोटा के बसंत विहार में स्थापना से जुड़ा रोचक इतिहास है। अकलंक स्कूल में कालिदास के नाटक ऋतु संहार का मंचन करना था लेकिन इसकी पुस्तक उपलब्ध नहीं हो सकी। कुछ समय पश्चात दिगंबर बड़ा जैन मंदिर रामपुर में रखी करीब 250 पांडुलिपियों को जैन समाज ने नदी में बहाने का फैसला किया। परंतु चौकीदारी करने वाले मालिन ने उक्त पांडुलिपियां सूझबूझ से अकलंक विद्यालय एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष राजेन्द्र जैन राजा बाबू को सौंप दी। इस घटना से स्तब्ध राजेंद्र जैन ने मई 2008 को अकलंक शोध संस्थान की स्थापना की और अपने अनुज, चंद्रमोहन बज से मिली 19 पांडुलिपियों से संस्थान की शुरुआत करा दी।

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अकलंक शोध संस्थान में पांडुलिपियों का डिजिटाइजेशन करते हुए।

अकलंक शोध संस्थान के सचिव ऐश्वर्य जैन ने बताया कि हम प्राचीन मंदिरों, राजघरानों तथा विद्वतजनों से संपर्क कर पांडुलिपियां जुटाते हैं। अकलंक शोध संस्थान 2011 से भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का पांडुलिपी संरक्षण केंद्र (एमसीसी) तथा सन् 2017 से पांडुलिपी संरक्षण केंद्र (एमआरसी) है। संस्थान प्रत्येक पांडुलिपी का डिजिटाइजेशन कर रहा है। संस्थान के पास वर्तमान में 2000 से अधिक पांडुलिपियां हैं। अब स्कॉलर्स के लिए यह संस्थान हाडौती क्षेत्र के रिसोर्स एंड रिसर्च सेंटर के तौर पर विकसित होने लगा है।

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अकलंक शोध संस्थान में संरक्षित पांडुलिपियां एवं धार्मिक ग्रंथ।

अकलंक शोध संस्थान की निदेशक संस्कृति जैन का कहना है कि अब पांडुलिपियों के साथ धार्मिक पुस्तकें,हाड़ौती भाषा का साहित्य तथा हाडौती क्षेत्र के संदर्भित ग्रन्थों का भी डिजिटाइजेशन किया जा रहा है। ताकि हाडौती क्षेत्र की संस्कृति को समग्र रूप में, गहराई से समझा जा सके। पांडुलिपि एकत्रीकरण एवं संग्रहण की प्रक्रिया में अनुपयोगी तथा जीर्ण शीर्ण सामग्री के अनुपयोगी कागजों से पेपर मेशी (पपीयर मैचे) की आकर्षक मूर्तियाँ एवं अन्य साज सज्जा की वस्तुएं बनाई जाती हैं। इसके लिए संस्थान की रीसाइकल यूनिट डालने की योजना है। उन्होंने कहा कि अधिशेष पुस्तकें एवं पत्र- पत्रिकाओं को छांटकर पुस्तकालयों तथा मंदिरों को भेज देते हैं।

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अकलंक शोध संस्थान में पुस्तकों की छंटाई का कार्य।

उन्होंने बताया कि अकलंक शोध संस्थान शास्त्रीय भाषा प्राकृत के संरक्षण एवं उत्थान के लिए प्रयासरत है। प्राकृत को प्राथमिक कक्षा 6 से 8वीं तथा माध्यमिक कक्षा 9 से 10वीं तक राजस्थान के पाठ्यक्रम में शामिल कराने के लिए प्रयासरत है। इसके लिए संस्थान देश भर के विद्वानों से पाठ्यक्रम एवं पुस्तकें तैयार करवा रहा है। उन्होंने कहा कि संस्थान ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुरूप मातृभाषा हाड़ौती के उत्थान के विभिन्न आयामों पर बीते वर्ष सितंबर से सक्रिय कार्य शुरू कर दिया है।

सचिव ऐश्वर्य जैन का कहना है कि संस्थान की पुस्तकालय एवं संग्रहालय स्थापित करने की योजना है। इसके लिए कोटा विकास प्राधिकरण से संपर्क किया गया है।

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