
– विवेक कुमार मिश्र-
(सह आचार्य हिंदी)

कभी कभार बाजार में निकल लिया करें ? घर में दिन भर बैठे बैठे कलम घिसते घिसते अपने आप को भी घिसने लगते हैं। ज्यादा घिसना ठीक नहीं है । बाजार में चलने से रंग बदल जाता है। ठहराव, एकरसता, उब, खिन्नता से बचने के लिए थोड़ा बाहर निकलना जरूरी हो जाता है। कहते हुए बलदेव बाबू अपनी सज धज बनाने लगते हैं। बाजार जाने से पहले मूंछ को ठीक करना, लक लक क्लफ लगा कुर्ता – धोती और पम्प शू का जूता तथा हाथ में छड़ी लेकर निकल जाते हैं। खरीदारी क्या होगी यह तो वहीं तय होता है पर चलने से पहले जो बाजार के साथ मन का लगाव होता वह बहुत महत्वपूर्ण हो जाता ह । वहीं तय करता है कि क्या लेना है क्या नहीं लेना है ।
इस लेन देन की दुनिया में बाजार ही हमारी दुनिया को तय करता है कि क्या-क्या कर सकते हैं और कहां तक जा सकते हैं । बलदेव बाबू बस एक ही बात करते हैं कि बाजार जाना है तो जाना है। सोचना नहीं कि क्या होगा? जो ज्यादा सोचता उसे बाजार भी गच्चा दे देता है। इसीलिए बिना सोचे बिना नागा किए बाजार चलें जाते हैं और पूरी ताकत से बाजार को देखभाल कर घूमघाम कर आ जाते हैं। जो चाहिए वह सब वहां से लाते भी हैं और कोई ऐसा काम नहीं जो यहां से न हो जाए। यहीं बाजार में बैठे हुए पूरी दुनिया भर की बातें कर लेते हैं। दुनिया भी घूम आते हैं। हर नये पुराने आदमी को पकड़ लेते हैं और तब तक नहीं छोड़ते जबतक वह पूरी बात बता नहीं देता। जिसे एक कप चाय पिलाते उसका पूरा सत्व निकाल लेते हैं ।
लोग बाग दुनिया घूमने जाते हैं पर बलदेव बाबू दुनिया नहीं अपने पास की बाजार में जाते हैं और ठप्पे से कहते हैं कि हमारा इलाका, यह बाजार किस दुनिया से कम है। जो हम कहीं और जाएं। हमारी दुनिया तो यहीं इस बाजार से बनती बिगड़ती है। इसे छोड़ भला कहां जाएं ? कहीं नहीं जायेंगे । यहीं सबको एक न एक दिन आना है। आलथी – पालथी मार यहीं बैठ जाते हैं । यह कहते हुए कि यहीं हम सबकी दुनिया है जिसे कहीं जाना हो जा सकता है बलदेव बाबू तो कहीं नहीं जायेंगे । इस तरह, इसी बाजार में बलदेव बाबू चाय पकौड़ी पर दुनिया भर की बातों के साथ मिल जाते हैं। दुनिया एक तरफ और बलदेव बाबू एक तरफ। यहां से वे सीधे सीधे अमरीका वाली मार करते हैं बीच में कोई आये जाये उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
अरे भाई ! बाजार जाना है तो बाजार के रंग धंग के हिसाब का तो ख्याल करना पड़ेगा। बाजार ऐसे तो नहीं चल देंगे कि मुंह उठाया और चल दिया। बाजार जाने के लिए समय समाज और अपनी स्थिति सब देखनी पड़ती है। किसी को भी दरकिनार कर … नहीं चल सकते और जब बाजार चलते हैं तो अपने साथ बहुत कुछ को लेकर चलते हैं। जो लोग बाजार में बैठे हैं जिनकी दुनिया ही बाजार है उनको आपसे बहुत उम्मीदें हैं। वह बाजार में इसलिए नहीं बैठा है कि आप आये और घूमघाम कर चल दें। ऐसे काम नहीं चलेगा। आपका बाजार में आना इसलिए भी जरूरी है कि बहुतेरे उम्मीद लगा कर बैठे हैं कि बलदेव बाबू आयेंगे तो कुछ न कुछ लेकर जायेंगे। रूकी रूकी सी दुनिया चल पड़ेगी। थोड़ी हलचल होगी। उनका होना ही काफी होता है हलचल सा कुछ हो जाने के लिए और यह हलचल भी तभी होती है जब बाजार में जाकर कुछ खरीदारी की जाए कुछ दुनिया को देखा जाएं और संसार को समझने का सीखने का अवसर भी कुछ प्राप्त होता है तो जाहिर है कि बाजार और हम सब चल पड़ते हैं।
बाजार में केवल चालांकी ही नहीं चलती यहां भी वही टिकता है जो भरोसे के लायक हो, टिकाऊ हो और शुद्ध हो। एकदम से देशी, मजबूत और वास्तविक हो तो बाजार से कोई भी निकाल नहीं सकता है । बाजार जब हम चलते हैं तो एक धारणा लेकर चलते हैं कि यह लेना है और यह नहीं लेना है । अपनी जरूरत को पहले से ही परिभाषित कर चलते हैं पर जरूरत अपनी जगह है और बाजार की ताकत ऐसी होती है कि वह आपसे बहुत सारी चीज़ें बिना किसी जरूरत के भी खरीदवा लेता है । जब आप बाजार को घर लेकर चलते हैं तो केवल आप ही नहीं चहकते आपके अलावा वे सारे लोग भी चहकते हैं जो आप और आप जैसे लोगों की वजह से बाजार में हैं । बाजार के सहारे जिनका जीवन चलता है उन सबकी ख़ुशी के लिए बाजार आना होता है । बाजार में आकर हम सब एक दूसरे की खुशियों के कारक जाने अनजाने बनते हैं।
बाजार में आते ही सभ्यता और संस्कृति की बातें भी सामने आने लगती है। यह भी पता चलता है कि दुनिया यहां से वहां पहुंच गई और कलम घिस्सु महाराज हैं कि अपनी जगह से ठस से मस नहीं होते। सबसे यहीं कहते रहते हैं कि जिसे आना हो वह यहीं आए । हम कहीं नहीं जायेंगे। पर दुनिया को जानने के लिए इधर उधर तो जाना पड़ता है । आपके इधर उधर जाने से दुनिया भी चलती है। सारी दुनिया यदि आपकी तरह ही अपनी जगह पर कुंडली मार कर बैठ गई तो फिर संसार का क्या होगा ? संसार बहुत कुछ बाजार और बाजार के साथ हमारे मानवीय रिश्तों से भी चलता है। कुछ और नहीं तो बाजार को चलाने के लिए ही बाजार आ जाया करिए । बाजार आने जाने में सेहत भी ठीक रहती है और दुनिया कहां से कहां जा रही है यह भी दिखने लगता है। दुनिया को चलाने के लिए न जाने कितने लोग आगे आते हैं तब जाकर यह संसार गति करता है । फिर आप अकेले घर में बैठकर संसार को चलाने का जो दावा करते रहते हैं वह ज्यादा समझ में नहीं आता । सब, सबकुछ छोड़कर यदि बैठ जायेंगे तो संसार कैसे चलेगा। संसार तो तभी चलता है जब सब कुछ गतिमान हो । सब चल रहे हों । सबको चलते देखने के लिए भी बाजार में आ जाना चाहिए।
बाजार हमारी इच्छा को केवल जगाता भर नहीं है वल्कि जगाने के साथ ही उस उत्पाद के लिए हमारे भीतर एक आवश्यकता भी भर देता है कि यह उत्पाद हमारे पास भी होना चाहिए। इस इच्छा में केवल आप अकेले गति नहीं करते आपके साथ साथ अनंत इच्छाएं जाग जाती हैं और इस गति में आपके साथ साथ समाज का बहुत सारा हिस्सा एक साथ आ जाता है। सबके आ जाने से संसार में एक गति दिखाई देने लगती है। यह गति ही संसार है और संसार का बाजार। इस बाजार में आदमी ऐसे घूमता रहता है कि इसी में और इसी के लिए जैसे बना हो। बाजार में चलते फिरते घूमते बाबू की जय! संसार की गतिमानता की जय!

















