
-विवेक कुमार मिश्र

ठंडी का मौसम आ गया है इस बात का अहसास ठंड से पहले ही शुरु हो जाता था । ठंडी के मौसम की तैयारी की जाती थी इसके लिए ठंड के कपड़े की साज संभाल शुरु हो जाती थी । लोग बाग रजाई को ट्रंक से निकालते, रजाई को धूप दिखाते , सुखाने के लिए छत पर रखते इस तरह से बहुत सारे काम ठंडी के साथ शुरु हो जाया करता था। यहीं नहीं जो पुरानी रजाई होती , जो बहुत गल गई होती उसमें कुछ और रुई भरवाकर नई कर लिया जाता था। रुई भरी रजाई को सुई धागे से तागने का काम किया जाता था यह तागना भी एक कला थी । हर कोई रजाई नहीं ताग सकता था और जो रजाई बढ़िया तागता उसकी इज्जत बहुत होती थी । रजाई में कितनी रुई भरी है और किस सघनता से तागी गई है यह रजाई के गर्म होने का आधार होता था । रजाई की साज संभाल होती थी जाड़े के दिनों में धूप में इस तरह के काम आराम के साथ किया जाता था । यह एक तरह से घरों से बाहर निकल कर मुहल्ले की सामाजिकता और सामूहिकता को आपसी संबंधों को प्रकट करने का माध्यम थी । पहले घरों में रजाई ही होती थी दादी नानी और मां के हाथ रजाई को तागने सम्भालने में लगे होते थे । अब देखता हूं कि रजाई तागते , रजाई संभालते लोग नहीं दिखते । रजाई की गर्माहट कम होती जा रही है और रेडिमेड कंबल उनकी जगह लेते जा रहे हैं । कौन मेहनत करें किसे पड़ी है कि भारी भरकम रजाई उठाये चलों कंबल ले लेते हैं और कंबल भी अब मुलायम रंग बिरंगे आकर्षक मिलते हैं । भारी भरकम चुभने वाले कंबल अब नहीं आ रहे हैं । अब जो कंबल आ रहे हैं वो बहुत मुलायम, नर्म होते जिसे ओढ़ने में बहुत आसानी लगती है । यह अचानक नहीं है कि लोग कंबल की ओर भागे जा रहे हैं । कंबल सुविधाजनक भी है और आसान है इसीलिए लोग कंबल ओढ़ रहे हैं और केवल ओढ़ ही नहीं रहे हैं बल्कि कंबल को इतना लोकप्रिय बनाते जा रहे हैं कि कंबल अब आम और खास सभी के बीच चल पड़ा है । कंबल का मिलना इतना आसान हो गया है कि लोग-बाग कंबल को छोड़ रजाई की ओर कहां से जाएं । रजाई भारी है कैसे ओढ़े । चलो कंबल ओढ़ लेते हैं और सब कंबल की ओर चल पड़े ।
कंबल ने रजाई को रिप्लेस कर दिया साहब । अमीर गरीब सभी कंबल ओढ़ रहे हैं और हर सड़क पटी है कंबलों से अब कंबल का बाजार सज गया है और कोई सड़क ऐसी नहीं जिसपर कंबलों के ढ़ेर न लगे हों । पूरी सड़क रंग बिरंगे कंबलों के ढ़ेर से पटी है और आते जाते राहगीर कंबल खरीदने, कंबल देखने में व्यस्त हो जाते हैं । कंबल हर तरह के हैं । हल्के वजन वाले, भारी वजन वाले तो सिंगल कंबल से लेकर डबल बेड वाले कंबल खींच ही लेते हैं अपनी ओर पर कितना भी कंबल ओढ़ लिया जाए पर रजाई का जो सुख था अब वो बात कंबल के ओढ़ने में नहीं दिखती है । हो सकता है कि किसी किसी को कंबल पसंद हो पर अपने को तो रजाई ही लुभाती है और रजाई ओढ़ लेने पर ही लगता है कि ठंड से राहत मिलेगी । कंबल को बस सुविधा के हिसाब से ही देख पाता हूं कि आने जाने और खेत खलिहान में कंबल को ओढ़ने में आसानी होती थी । यह चलन में था पर अब क्या घर और क्या बाहर सब जगह कंबल ने अपना ही राज जमा लिया है । ऐसे में अभी भी मन रजाई की दुनिया की ओर भागता रहता है । अब सड़क पर रजाई तागने वाले नहीं दिखते न ओ हुनर दिखता । सब रेडिमेड कंबल के फेर में ऐसे पड़े हैं कि कुछ और दिखाई ही नहीं देता । यह जो सड़क जहां से जहां जाती है कंबल से पटी है और आदमी है कि ठहर जाता है कंबलों के मोह में। अब कोई हल्कू की तरह कहां याद करता कि इस कंबल को मेरे पिताजी के पिताजी ओढ़ते थे और अब मैं यानी हल्कू ओढ़ता हूं। कंबल है कि चारों तरफ़ से फट गल गया है पर हल्कू नया कंबल कहां से लाएं और घर में कंबल नहीं आता और पूस की रात में हल्कू को फटे कंबल ओढ़ खेत की रखवाली करनी पड़ती है। अंततः न तो ठंडी हवाओं से बचाव हो पाता है और न ही खेत में फसल की रखवाली हो पाती पर अब उम्मीद करता हूं कि सबके पास कंबल है और कंबल की कमी से फिर कोई खेत में न ठिठुरते हुए दिखें। कंबल की यह ढ़ेरों ढ़ेरों राशि सब तक कंबल की पहुंच तो सुनिश्चित करते ही हैं और जाहिर सी बात है कि कंबल है तो जाड़े पाले से बचाव भी होगा । अब यह कहते हुए ठीक लगता है कि जब सब कंबल ओढ़ रहे हैं तो फिर किसी के लिए अब उस तरह ठंडी से लड़ाई नहीं लड़नी होगी जैसे कि हल्कू पूस की रात में फटे हुए कंबल से लड़ रहा था और एक समय के बाद थक हार कर बैठ जाता है। अब जब सब जगह कंबल दिख रहा है तो तय है कि उम्मीद भी दिख रही है कि अब पाले जाड़े में कोई भी हाड़ से कांपते हुए नहीं दिखेगा । कंबलों की महिमा के आगे रजाई ने तो अपना रास्ता ले ही लिया अब कंबलों तैयार हो जाओ ठंड पर जय पाने के लिए।