ज़िंदगी का मोल कितना घट गया है आजकल। मौत सस्ती हो गई इतनी कि डर जाता रहा।।

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शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

लो हमारे रंजो-ग़म का हमसफ़र* जाता रहा।
आज दिल भी हाथ से ऐ चारागर* जाता रहा।।
*
फिर टपक कर गुम हुआ वो ख़ाक* की आग़ोश* में।
फिर तेरा लख़्ते-जिगर* ऐ चश्मे-तर* जाता रहा।।
*
इक ज़रा देखा था उसको खो गई बीनाई* भी।
हसरते-दीदार* में लुत्फ़े-नज़र* जाता रहा।।
*
ज़िंदगी का मोल कितना घट गया है आजकल।
मौत सस्ती हो गई इतनी कि डर जाता रहा।।
*
जैसे तैसे कट रही थी उसमे अपनी ज़िंदगी।
इस बरस बरसात में वो कच्चा घर जाता रहा।।
*
क्यूँ नहीं सुनता वो “अनवर” मेरे ग़म की दास्ताॅं।
क्या मेरी आहो-फ़ुगाॅं* में अब असर जाता रहा।।
*

हमसफ़र*साथ में चलने वाला सहयात्री
चारागर* डॉक्टर, चिकित्सक
ख़ाक*मिट्टी
आगोश*बाहों में गोदी में
लख़्ते-जिगर*दिल से प्रिय पुत्र की तरह
चश्मे-तर*ऑंसुओं से भरी हुई ऑंख
बीनाई*दृष्टि
हसरते-दीदार*देखने की इच्छा
लुत्फ़े-नज़र*देखने का आनन्द
दास्ताँ*कहानी
आहो-फ़ुगाॅं*रोना धोना फरियाद करना

शकूर अनवर
9460851271

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