हर एक जुर्मे मुहब्बत* उसे मुआफ़* हुआ। क़ुसूर मेरा ही निकला हिसाब साफ़ हुआ।।

shakoor anwar
शकूर अनवर

ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
हर एक जुर्मे मुहब्बत* उसे मुआफ़* हुआ।
क़ुसूर मेरा ही निकला हिसाब साफ़ हुआ।।
*
मैं उसके कहने पे क्यूॅं आग को धुऑं लिखता।
यही सबब था मेरा उससे इख़्तलाफ़* हुआ।।
*
नदी में जब कोई पानी का बुलबुला फूटा।
मुझे खुद अपनी हक़ीक़त का इन्केशाफ़* हुआ।।
*
मैं सानहा* तो नहीं हूॅं ख़ुद अपनी हस्ती*का।
शिकस्ते ज़ीस्त* का क्यूॅं मुझको ऐतराफ़* हुआ।।
*
फिर एक ताज़ा ग़ज़ल छप गई मेरी “अनवर”।
फिर एक दोस्त पुराना मेरे ख़िलाफ़ हुआ।।
*

जुर्में मुहब्बत*प्रेम में लगने वाले इल्ज़ाम
मुआफ़ हुआ* क्षमा योग्य
इख़्तलाफ़* विरोध
इंकेशाफ़* ज़ाहिर होना मालूम होना
सानहा*दुर्घटना
हस्ती*जीवन
शिकस्त ए ज़ीस्त* जीवन की पराजय
एतराफ़* स्वीकार्यता

शकूर अनवर
9460851271

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