
-विवेक कुमार मिश्र

एक आदमी मिला
हां एक आदमी मिला
पूछ लिया कहां तक छोड़ दें
तो कहा कि घर तक छोड़ दें
कहां है घर – तो पता नहीं कह
साथ में चल दिया
आदमी आदमी की तरह रहे
तो कोई दिक्कत नहीं
पर कभी कभी कोई कोई आदमी
बिल्कुल ही आदमी की तरह नहीं होता
उसकी एक भी बात पते की नहीं मिलती
वह पता लेकर चलता ही नहीं
और बात बात पर फिच्च कर हंस देता
अब ऐसे आदमी मिल जाये
तो आप क्या कर सकते हैं
आदमी को आदमी की तरह देखना
बड़ी कवायद है और आदमी है कि
चल कर कविता के संसार में आ जाता है
आदमी के पास हो सकता है कि घर न हो
पर कविता तो हर आदमी का पता लिखती है
इस पृथ्वी पर जब सभी का एक पता है
तो कविता से पूछने का मन करता है कि
भला वह आदमी कौन है जिसका पता नहीं है
और साथ ही बराबर से चलता रहता है
तरह तरह से बातें करता है
और एक दो नहीं हजारों हजार
कहानियां सुना देता है
कभी भी कहीं भी मिल जाता है
और नहीं मिलता तो फिर सालों सालों नहीं मिलता
और एक दिन फिर अचानक से
वह आदमी मिल जाता है
जिससे पूछता रहता हूं कि तुम्हारा पता क्या है
पर पता पूछते आदमी को
कोई भी ठीक से पता नहीं बताता
बस इसी तरह हर दिन
एक नई यात्रा पर निकल जाता हूं
कि आदमी से पूछ लूंगा सही सही पता
आदमी है कि बस हंस कर टाल जाता है
पता तो बताता ही नहीं
हां आदमी की तरह हंसते हुए
कहां… भला हम कहां रहते हैं
यह हमें ही आज तक पता नहीं चला
अब आप चाहें जहां छोड़ दें
मैं चला जाऊंगा जहां जाना है
आज नहीं कल तो पहुंच ही जाऊंगा ।