फादर कामिल बुल्के (जन्म: 1 सितंबर 1909)

-राघवेंद्र भाऊ-
रामकथा और ‘ रामचरित मानस ‘ को अकादमिक , बौद्धिक जीवन और सन्दर्भ देने वाले फादर कामिल बुल्के की लिखी पुस्तक, ‘ रामकथा : उत्पत्ति और विकास ‘ सर्वश्रेष्ठ कृति है । इस किताब के बारे में, महान भाषा विज्ञानी डॉ धीरेंद्र वर्मा ने लिखा है – , ‘ इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है । वास्तव में यह शोध पत्र अपने ढंग की पहली रचना है । हिंदी क्या किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है ।”.
रामकथा के महत्व को लेकर फादर कामिल बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए । उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के करीब 300 रूपों की पहचान की । रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है । रामकथा के इतिहास और स्वरूप-सम्बन्धी दुनिया भर में प्रचलित विभिन्न मतों और परम्पराओं का उद्घाटन करने वाले फादर कामिल बुल्के भारत के पहले अध्येता थे ।
कामिल बुल्के उत्तरी बेल्जियम के रहने वाले थे जहां फ्लेमिश बोली जाती थी । यह डच भाषा का ही स्थानीय संस्करण थी । लेकिन वहां के दक्षिणी प्रदेश में फ्रेंच का दबदबा था, जो बेल्जियम के शासकों और संभ्रांत लोगों की भाषा थी । इस वजह से स्थानीय भाषा और फ्रेंच में अक्सर संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी । कामिल बुल्के जब कॉलेज में थे तो फ्रेंच के इस दबदबे को लेकर वहां एक बड़ा आंदोलन हुआ । उन्होंने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया । भारत आने पर उनके जीवन की दशा-दिशा ही बदल गयी । उन्होंने तय कर लिया कि भारत ही उनकी कर्मभूमि रहेगी । उन्होंने यहां की भाषाएं भी सीखीं ।
1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय उन्होंने हिंदी में ही लिखा । उनसे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था । हालांकि वे खुद अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लै​टिन और ग्रीक भाषाओं में सहज थे । लेकिन उन्होंने अपने गाइड और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान माता प्रसाद गुप्त से साफ कह दिया कि वे शोध-प्रबंध लिखेंगे तो हिंदी में ही ।
फादर कामिल बुल्के की नजर में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास थे । तुलसीदास की रचनाओं को समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज तक सीखी । उन्होंने रामकथा, तुलसीदास और मानस-कौमुदी जैसी रचनाएं तुलसीदास के योगदान पर ही लिखी थीं । ईसाई धर्म के बारे में भी हिंदी में कई ग्रंथ लिखे और हिंदी में बाइबिल का अनुवाद भी किया था ।
बुल्के ने अपने शोधग्रंथ से पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है । वियतनाम से इंडोनेशिया तक । इसी प्रसंग में वह अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डाक्टर होयकास का हवाला देते थे । डा० होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे । एक दिन वह केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे । उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान रखी है, इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे थे ।
होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये! रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय ।
इस ऋषि को शत – शत नमन ।
Raghvendra Bhau
Rakesh Kumar Singh की वॉल से।
(लोक माध्यम से साभार)
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