दृष्टि संपन्नता की यह ज्योति निरंतर जलती रहे

मैं बुनियादी तौर पर आलोचना को भी एक तरह से रचना ही मानता हूं। रचनाकार जिस आत्मसंघर्ष से गुजरता है आलोचक भी उस आत्मसंघर्ष से गुजरता है। रचना को समाज की तह तक ले जाने का काम आलोचना करती है। उनका जोर बराबर साहित्य के सच से समाज के सच को देखने जानने और परखने का रहा है। उनकी आलोचना सामाजिक चेतना के साथ समाज के जागरण के लिए सीधे तौर पर बौद्धिक वर्ग को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है

vivek mishra
डॉ विवेक कुमार मिश्र

– विवेक कुमार मिश्र-

मैनेजर पांडेय ( 23-09-1941 से 06-11-2022 ) बिहार के एक गांव लोहटी ( गोपालगंज ) से निकल कर हिंदी आलोचना के शिखर पर रहते हुए लगातार अपनी टिप्पणी, अपने लेख और व्याख्यान से एक गंभीर बौद्धिक विमर्श को जन्म देने वाले आलोचक के रूप में अपनी अलग ही पहचान स्थापित की। बौद्धिक प्रखरता जो आज दिनो-दिन गायब होती जा रही है, जहां असहमतियों को गुण के रूप में न देखा जा रहा हो, जहां अपनी स्थापना के लिए विचारों के द्वंद और अंतर्द्वंद्व से लगातार गुजरना हो वहां मैनेजर पांडेय का विकल्प दूर दूर तक कहीं दिखता नहीं है। एक बौद्धिक का अपने समय में होना बहुतों के लिए चैन की नींद में जाने का कारक भी होता है तो बहुतों को जगाने और छटपटाने के लिए भी एक बौद्धिक का मुखर होना जरूरी होता है। एक आलोचक की समाज को कहां जरूरत है और एक आलोचक किस तरह जनता की लड़ाई, जन संघर्षों को रचनात्मक मूल्य के रूप में कैसे विकसित करता है यह जानना समझना हो तो मैनेजर पांडेय से मिलना, उनको पढ़ना, उनसे संवाद करना जरूरी होता है। जब तक आपकी बहुत तैयारी से न हो, समाज की बारीक समझ न हो और पदार्थ व समाज की सत्ता को देखने की सही दृष्टि न हो तब तक आप मैनेजर पांडेय के पास बैठ पाने का साहस नहीं कर सकते। ज्ञान की यहां जो दुनिया थी वह निर्भीक होने की मांग करती थी। सत्य और सत्ता के बीच सत्य का चयन करना सीखाती है।

मैनेजर पांडेय से 2012 में डी.डी.ए. फ्लैट्स मुनिरका नई दिल्ली में रचना आलोचना और परस्पर रचनात्मक ऊर्जा के साथ संवाद करने का अवसर मिला । अपनी बात को बहुत बेबाकी से रखने के लिए पांडेय जी की यश कीर्ति इसलिए बनी थी कि जो कुछ कहा जा रहा है वह अध्ययन मनन और चिन्तन के बाद वस्तुनिष्ठ रूप से परीक्षित किया जा चुका है । आवाज की खनक, टनक और ठनक एक साथ और बहुत जोर देकर अपनी बात को कहते थे। इस समय यह सवाल किया जाता है कि जीवन संघर्ष / आत्म संघर्ष की यात्रा रचनात्मक यात्रा व आलोचनात्मक यात्रा से किस प्रकार जुड़ती है ? अपनी आलोचना प्रक्रिया में स्वयं के जीवन संघर्ष को आम आदमी के जीवन संघर्ष में रुपांतरित होते कैसे देखते हैं ? तो इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आलोचक कहते हैं रचनाकार का जो संघर्ष है वह आलोचक के आत्मसंघर्ष से जुड़ता भी है और अलग भी होता है। मैं बुनियादी तौर पर आलोचना को भी एक तरह से रचना ही मानता हूं। रचनाकार जिस आत्मसंघर्ष से गुजरता है आलोचक भी उस आत्मसंघर्ष से गुजरता है। रचना को समाज की तह तक ले जाने का काम आलोचना करती है। उनका जोर बराबर साहित्य के सच से समाज के सच को देखने जानने और परखने का रहा है। उनकी आलोचना सामाजिक चेतना के साथ समाज के जागरण के लिए सीधे तौर पर बौद्धिक वर्ग को कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।

एक आलोचक का पहला काम होता है कि अपने समय की पड़ताल करती रचनाओं को सामने लाएं, उस विशाल पाठक वर्ग को प्रभावित करें जिसे रचना में रखा गया है उस तक पहुंच बनाने का काम रचनात्मक आलोचना से ही संभव होता है। लेख, भाषण और रचनात्मक संवाद के साथ साथ आलोचनात्मक विमर्श की उनकी पुस्तकें जो बौद्धिक विमर्श के लिए बराबर उकसाती रही हैं – शब्द और कर्म, साहित्य और इतिहास दृष्टि, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, अनभै सांचा, आलोचना की सामाजिकता, संकट के बावजूद, देश की बात, उपन्यास और लोकतंत्र, यहां से होते हुए आप सामाजिक यथार्थ और आलोचनात्मक दृष्टि से समय को देखने के क्रम में आप आगे बढ़ते हैं । उनके आलोचक का सबसे बड़ा काम यह है कि वह नये सिरे से रचना और समाज के संबंधों पर बात करने के लिए जगह उपलब्ध कराते हैं और यह जगह लोकतंत्र में ही संभव है । साहित्य और समाज के लोकतंत्र में जब गहरी निष्ठा होती है तो समाज में लोकतांत्रिक चेतना से लैस आलोचक मैनेजर पांडेय मिलते हैं। एक साथ बहुत कुछ प्रोफेसर, आलोचक, बौद्धिक विमर्श और लोकतांत्रिक चेतना के साथ सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जीवन साहित्य और समय का गंभीर मूल्यांकन कर समय समाज और साहित्य इतिहास का परीक्षण करते हुए समाज को देखने की अलग ही दृष्टि के कारण हिंदी आलोचना में विशेष मान और आदर के साथ नाम मैनेजर पांडेय का नाम लिया जाता रहा है। आज गुरुदेव प्रोफेसर सेवाराम त्रिपाठी के मैसेज से पता चला कि आलोचक मैनेजर पांडेय नहीं रहे। ज्ञान विज्ञान और दृष्टि संपन्नता की यह ज्योति साहित्य को देखने परखने में निरंतर जलती रहें ।

(डॉ विवेक कुमार मिश्र कला महाविद्यालय कोटा में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर के साथ लेखक, कवि और टिप्पणीकार हैं)

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