
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-

चले आओ अभी है रुत सुहानी देखते क्या हो।
गुज़रती जा रही है ज़िंदगानी देखते क्या हो।।
*
ख़मोशी रात की बढ़ती ही जाती है ज़रा सोचो।
कहीं से छेड़ दो कोई कहानी देखते क्या हो।।
*
यही है हौसला तूफ़ान की ज़द* में चले जाओ।
किनारे ही से मौजों की रवानी देखते क्या हो।।
*
गुज़िश्ता* वाक़ियाते ज़िंदगी फिर याद आयेंगे।
कैलेंडर में यूॅं तारीख़ें पुरानी देखते क्या हो।।
*
कहीं तामीर* हो जाए न सानी* ताज फिर “अनवर”।
अभी तो ऑंख से टपका है पानी देखते क्या हो।।
*
जद* सीमा परिधि
गुज़िश्ता* गुजरे हुए
तामीर* निर्माण निर्मित
सानी* दूसरा
शकूर अनवर