
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
बेमुरव्वत* है ज़माना क्या करूॅं।
अब कहाँ जाऊँ ठिकाना क्या करूँ।।
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और भी तो हैं मसाइल* सामने।
फिर मिज़ाजे आशिक़ाना*क्या करूॅं ।।
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हाॅं मुझे दारो रसन* ही चाहिए।
सर फिरा है ये ज़माना क्या करूॅं ।।
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खानमाॅं – बरबाद* हूॅं जाऊॅं कहाॅं।
जल गया है आशियाना क्या करूॅं।।
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चूड़ियाॅं पहने हुए हैं लोग सब।
शहर है शहर ए ज़नाना* क्या करूॅं ।।
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शायरी नज़रे – तरन्नूम* हो गई।
रह गया गाना बजाना क्या करूॅं।।
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लोग तो हॅंसते हैं सुनकर दास्ताॅं।
फिर बयाॅं अपना फ़साना क्या करूॅं।।
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अब तुम्हारे शहर से “अनवर” मेरा।
उठ गया है आबो दाना* क्या करूॅं।।
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बेमुरव्वत* बेवफ़ा,
मसाइल* समस्याऍं,
मिज़ाजे आशिक़ाना* रसिक स्वभाव,
दारो रसन* सूली, फंदा,
खानमाॅं-बरबाद* तबाह, उजड़ा हुआ,
ज़नाना* नामर्द, नपुंसक,
नज़रे तरन्नुम* गायकी की भेंट,
आबो दाना* खाना पीना,
शकूर अनवर
9460851271