
क्या फकीर ढूंढेंगे
-चांद शेरी-

कोई दाता अमीर ढूंढेंगे
शहर में क्या फकीर ढूंढेंगे
मोतबर रहनुमा नहीं कोई
राह खुद राहगीर ढूंढेंगे
हम नए दौर की किताबों में
खाक तुलसी- कबीर ढूंढेंगे
बिक गया है जो चंद सिक्कों में
उसमें हम क्या जमीर ढूंढेंगे
ये तो शतरंज है सियासत की
गोटियां खुद वजीर ढूढेंगे
पीर अपनी भुला के हम ‘शेरी’
दीन-दुखियों की पीर दूहेंगे.
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