
-सुनीता करोथवाल-

ये एक-एक औरत संपूर्ण धरती है
पूरा गाँव हैं
कीकर का फूलों से लदा पेड़ हैं
इन्हीं की किसी झुकी कमर में
मेरी नानी बसती है खोर बुहारती हुई।
इन्हीं में ढूँढती हूँ मैं
अपनी चाची के आटे से भरे हाथ
जो जल्दी में हर बार धोना भूल जाती है।
बुआ के नाखूनों में फसा हरा बथुआ
जो एक समय का चूल्हा जलाता है
इन्हीं हाथों की चूड़ियों में गेहूँ की बालियाँ उलझी हैं
और ग्वार के रोएँ छुपे हैं।
ताई के दातों में अटकी हुई है मेथी की महक
और दादी की बूढ़ी हड्डियों में ठहरा हुआ है जरा-सा खेत।
जहाँ पसरा हुआ है
आज भी चने का साग
गेहूँ का सुनहरापन
बाजरे के जिद्दी दाने
जिन्हें वहीं छुपना है अगले बरस फिर उगने के लिए।
मैं इन्हीं में पूरे खेत देखती हूँ
इन्हीं की मैली ओढ़नी से सरसों के फूल झरते हैं
इन्हीं की फटी हथेलियों से नरम होकर
धरती नई फसल बिछाती है
इन्हीं की “हो-हो” से पशु कतार में चलते हैं
इन्हीं की पुचकार से भैंस दूध देती हैं
इन्हीं हथेलियों पर मक्खन उछलते हैं।
इन्हीं के सहलाने से गन्ने रस में बँधते है
हारों से धुएँ उठते हैं
चूल्हे अंगार उगलते हैं
और जन्म लेती हैं सफ़ेद रोटियाँ
जो धरती पर रहने के लिए शायद
आख़िरी और पहली ज़रूरत है।
सुनीता करोथवाल
बेहतरीन….✨????????
इन्हीं नायिकाओं ने बचाएं रखा हैं खेतों को… बागानों को।