-डाँ आदित्य कुमार गुप्ता-

समय ! परिवर्तनशील
अनवरत् प्रवाहमान
नहीं रुकता रथ समय का
किसी के लिए
आप हों कितने भी विशेष ।
कुछ नहीं रहता शेष
नहीं पड़ती सुनाई पदचाप
सब कुछ घट जाता आप ।
कोई भले ही
गर्व -रथ में बैठकर
सोच ले
सब कुछ मैं ही करता हूँ ।
परिवर्तन -रथ
रौंद कर निकल जाता
हाथ मलकर रह जाते हम
चिह्न रहे जाते लक्षित अलक्षित ।
समस्त संसार
चीटी से कुंजर तक
जीव अजीव
तुम्हारी गिरफ्त में।
दौड़़ रहे सब अपने पथ पर
ग्रह नक्षत्रों की तरह
तुम्हारा पीछा करते
तुम दूर निकल गये होते हो
आँख खुलने से पहले ।
डाँ आदित्य कुमार गुप्ता, कोटा ।

















