ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
क़िस्मत का नज़्ज़ारा* देखूँ।
टूटा कोई सितारा देखूँ।।
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अब तो सूरज डूब रहा है।
और कहाँ तक रस्ता देखूँ।।
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फूल ज़मीं के नभ के तारे।
सब में उसका जलवा देखूँ।।
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मैं ही रहबर* मैं ही रहज़न*।
खुद के अंदर क्या क्या देखूँ।।
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जिसने मुझ पर वार किया था।
उसको भी मैं अपना देखूँ।।
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सोचूँ आग लगाई मैने।
कोई घर जब जलता देखूँ।।
”
तुम भी दुनिया देख रहे हो।
मैं भी रोज़ तमाशा देखूँ।।
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इक मुद्दत से जाग रहा हूंँ।
अब तो सोऊॅं सपना देखूँ।।
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ओझल ओझल चाॅंद-सितारे।
इन में एक सवेरा देखूँ।।
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ये तो कोई जुर्म नहीं है।
चाॅंद में उसका चेहरा देखूँ।।
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रोशन* होती कोई तमन्ना।
कोई दीया तो जलता देखूँ।।
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इन्सानी क़द्रों* को “अनवर”।
और कहाँ तक गिरता देखूँ।।
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नज़्ज़ारा*दृश्य
रहबर*मार्ग दर्शक
रहज़न*लुटेरा डाकू
रोशन*प्रज्वलित
इन्सानी क़द्रों*मानवीय मूल्यों
शकूर अनवर
9460851271