ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
फिर वही पाॅंवों में बेड़ियाँ क्या करूँ।।
फिर वही गर्दिशे-आसमाॅं* क्या करूँ।।
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रास आई नहीं ये मुहब्बत मुझे।
अब तुम्हीं कुछ कहो जाने-जाॅं* क्या करुॅं।।
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जो भी थे दिलनशींं* सब सितमगर* हुए।
कोई भी अब नहीं मेहरबाॅं क्या करूँ।।
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फूल ख़ुश्बू हवा ऐसे बदज़न* न थे।
हो गये सब के सब बदगुमाॅं* क्या करूँ।।
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कैसी मंज़िल कहाँ का सफ़र कुछ नहीं।
रास्ते मरहले* कारवाॅं क्या करूँ।।
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सर छुपाने को जब कोई छप्पर नहीं।
फिर ये सर पर रखा आसमाॅं क्या करूँ।।
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ऐसी बिजली गिरी घर का घर जल गया।
रह गया बस धुआँ ही धुआँ क्या करूँ।।
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जो मिली जैसी थी ज़िंदगी जी गये।
अब बयाॅं* उसकी मैं दास्ताँ क्या करूँ।।
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कोई घर कोई चौखट मयस्सर नहीं।
कोई मिलता नहीं आस्ताँ* क्या करूँ।।
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*घर के होते हुए जैसे बेघर हूँ मैं।
लामकानी* बता अब मकाॅं क्या करूँ।।
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ख़ुद ही माॅंगे थे “अनवर” ये दारो-रसन*।
अब अगर खुल गईं रस्सियाँ क्या करूँ।।
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गर्दिशे-आसमाॅं*समय का चक्र बदनसीबी
जाने-जाॅं*प्रिय प्रेमिका
दिलनशीं*दिल में रहने वाले
सितमगर*ज़ालिम
बदज़न*शक करने वाला
बदगुमाँ*बुरा खयाल रखने वाला
मरहले*पड़ाव
बयाॅं*वर्णन
लामकानी*विश्व रूपी घर स्वर्ग
आस्ताँ*चौखट
दारो-रसन*सूली और फाॅंसी का फंदा
शकूर अनवर
9460851271
बढ़िया ग़ज़ल।
आपका आभार